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________________ तृतीय अधिकार :: 115 आकाश, लोकालोक में सर्वत्र व्याप्त है। उसके प्रदेश या सूक्ष्म अवयव देखें तो अनन्तानन्त हैं। केवल लोकाकाश के असंख्यातमात्र ही प्रदेश हैं। उतने ही एक-एक जीव के प्रदेश बताए गये हैं। पुद्गल द्रव्य के स्कन्धों की उत्पत्ति परमाणुओं के मिलने पर होती है और टूटने-फूटने पर परमाणु प्रकट हो जाते हैं, इसलिए स्कन्धों में प्रदेश मानना तो ठीक है, परन्तु जिन कालादिकों में प्रदेशों का प्रादुर्भाव ही जुदा कभी नहीं होता उनमें प्रदेश क्यों माने जाते हैं ? उत्तर-प्रदेशों की कल्पना इसलिए नहीं की गयी है कि वे जुदे होने ही चाहिए अथवा पहले से ही जुदे हों। तो? इसलिए कि लम्बाई-चौड़ाई आदि का ज्ञान हो। एक पुद्गल का परमाणु तथा एक हाथभर चौड़ी पत्थर की शिला, इन दोनों की चौड़ाई आदि का अन्तर, यदि प्रदेश कल्पना न की जाए तो, किस प्रकार जाना जा सकता है ? जिस प्रकार हाथ, गज इत्यादि किसी चीज को नापने के साधन हैं, उसी प्रकार प्रदेश कल्पना भी एक-एक अवयव संख्या समझने का साधन है। हाथ, गज इत्यादि मोटे साधन हैं और प्रदेश सबसे छोटा साधन है। जब कि परमाणु की अपेक्षा एक हाथ लम्बी शिला में लम्बाई अधिक है तो वह कितनी अधिक है, यह प्रश्न परमाणुओं से ज्ञात होने पर ही दूर हो सकता है। भावार्थ-उसकी लम्बाई पर जितने परमाणु क्रम से रखे जा सकते हों उतने ही उसकी लम्बाई में प्रदेश होंगे, यह उत्तर हो जाता है। यदि घनफल के परमाणुओं की संख्या जोड़ ली जाए तो उस शिला के समस्त प्रदेश जाने जा सकते हैं। यदि इस प्रकार प्रदेश कल्पना वस्तुओं में नहीं की जाएगी तो परमाणु तथा परमाणु से अधिक बड़ी वस्तु में अन्तर ही क्या रहेगा? बस, यही प्रदेश कल्पना करने का प्रयोजन है। जब तक यह प्रयोजन सत्य है तब तक प्रदेश कल्पना से सिद्ध हुए किसी वस्तु के प्रदेश भी सत्य ही मानने चाहिए। यह प्रदेश कल्पना के द्वारा जो प्रदेशसिद्धि हुई वह जैसी एक पुद्गल-स्कन्ध में सत्य है वैसी ही आकाशादि सतत अखंड पदार्थों में भी सत्य ही माननी चाहिए। क्योंकि वर्तमान में जैसा पुद्गल स्कन्ध अखंड है वैसे ही आकाशादिक भी अखंड हैं। जब कि स्कन्ध में परमाणु बद्ध होकर एकमय हो जाते हैं तभी स्कन्ध नाम प्राप्त होता है। इसलिए पूर्वोत्तर काल में परमाणु जुदे-जुदे रहने के कारण केवल इस समय के स्कन्ध में प्रदेश कल्पना नहीं माननी चाहिए, नहीं तो, वर्तमान में भी वह स्कन्ध एक नहीं ठहर सकेगा और उसकी अधिक मोटाई भी नहीं ठहर सकेगी। यह दोष हटाने के लिए जबकि अखंड स्कन्ध में प्रदेश माने जा सकते हैं तो आकाशादिकों में मानने से क्या हानि है? प्रदेश कल्पना कहाँ पर नहीं है? कालस्य परमाणोश्च' द्वयोरप्येतयोः किल। एकप्रदेशमात्रत्वादप्रदेशत्वमिष्यते॥21॥ अर्थ-काल भी छह द्रव्यों में से एक द्रव्य है। काल के दो प्रकार माने हैं-व्यवहार और निश्चय। काल के निमित्त से प्रत्येक द्रव्यपर्याय में उत्पन्न होनेवाली भूत, भविष्यत्, वर्तमानरूप तथा समय, 1. 'कालस्य परिमाणोऽस्तु' ऐसा छपी हुई पुस्तक में पाठ है; परन्तु हम उपर्युक्त पाठ को ही ठीक समझते हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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