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________________ तृतीय अधिकार :: 117 के लोक व अलोक ये दो विभाग मान लिये गये हैं । वास्तविक आकाश दोनों जगह का एक-सा ही है, परन्तु इतर द्रव्यों के रहने की मर्यादा हो जाने से उतने आकाश का 'लोकाकाश' नाम पड़ गया है। धर्माधर्म की अवगाहना का परिमाण लोकाकाशे समस्तेऽपि धर्माधर्मास्तिकाययोः । तिलेषु तैलवत्प्राहुरवगाहं महर्षयः ॥ 23 ॥ अर्थ - धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय द्रव्यों का अवगाहन समस्त लोकाकाश में तिल में तेल की तरह है। लोकाकाश का एक अंश भी इन दोनों द्रव्यों से रहित नहीं है - ऐसा महर्षि भगवान ने कहा है । जीव की अवगाहना का परिमाण संहाराच्च विसर्पाच्च प्रदेशानां प्रदीपवत् । जीवस्तु तदसंख्येय- भागादीनवगाहते ॥ 24 ॥ अर्थ - लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर जीव के भी असंख्यात प्रदेश हैं, परन्तु जीव शरीरादिजनक कर्मों के वश शरीर के भीतर ही रहता है । प्रत्येक जीव की यही अवस्था है। एक शरीर छूटता है तो दूसरा शरीर एक, दो, तीन या चार समय के भीतर ही मिल जाता है, इसलिए जीव शरीर के बाहर न रहकर भीतर ही रहता है। शरीरों का आकार एक-सा नहीं होता, इसलिए जैसा जिस समय शरीर मिलता है, वैसा ही उस समय अपने आकार को पूर्व की अपेक्षा कुछ संकोच या विस्तार करके जीव शरीराकार हो जाया करता है। यदि कोई जीव मुक्त हो तो भीजे हुए कपड़े की तरफ जैसे शरीर के आकार में से छूटता है वैसा ही सदा के लिए रह जाता है । शरीरों में प्रवेश कर रहने के लिए कर्मों का उदय तो निमित्त कारण है ही, जीवों में स्वयं शक्ति भी ऐसी होनी चाहिए जिससे वह संकोच व विस्तार कर सकें। यदि स्वयं शक्ति न हो तो केवल निमित्त क्या कर सकता है ? निमित्त मिलने पर संकोच व विस्तार होना असम्भव बात नहीं है। पुद्गलों में भी ऐसे उदाहरण मिलते हैं। देखिए, दीपक यदि खुली जगह में रखा हो तो उसके प्रकाश का परिमाण नहीं हो सकता है, परन्तु वही दीपक एक घड़े के भीतर रख दिया जाए तो सारा प्रकाश उसी के भीतर आ जाता यदि घड़े में से निकालकर एक घर में रख दिया जाए तो घरभर में प्रकाश फैल जाता है । इसी प्रकार शरीरों के वश जीवों का संकोच विस्तार होता रहता है । I Jain Educationa International लोकाकाश के प्रदेश भी सब असंख्यात हैं और उस असंख्यात से एक छोटी-सी असंख्यात संख्या द्वारा लोकाकाश प्रदेशों को भाजित कर दें तो भाग भी असंख्यात हो जाते हैं। असंख्यात संख्या, असंख्यात प्रकार की हो सकती है, इसीलिए भाजक संख्या असंख्यात होकर भाज्य असंख्यात संख्या को विभक्त कर सकती है और फिर एक-एक भाग में भी प्रदेश संख्या असंख्यात रहती है । जीवों के एक-एक शरीर की आकृति छोटी, बड़ी अनेक प्रकार की है। उनमें से सबसे छोटा जो शरीर होता है उसे निगोद शरीर कहा है। वह लोकाकाश का असंख्यातवाँ एक भाग है। उसमें आकाश के प्रदेश असंख्यातों घिर जाते For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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