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________________ 86 :: तत्त्वार्थसार अर्थ-दक्षिण दिशा के स्वर्गनिवासी इन्द्र, लोकपाल, सर्व लौकान्तिक देव, शची इन्द्राणी तथा सौधर्म इन्द्र-ये सभी मरकर मनुष्य-भव धारण कर मुक्त ही होते हैं । उस मनुष्यभव से आगे उन्हें फिर भव धारण नहीं करना पड़ता है। लोक का स्वरूप धर्माधर्मास्तिकायाभ्यां व्याप्त: कालाणुभिस्तथा। व्योम्नि पुद्गलसंछन्नो लोकः स्यात्क्षेत्रमात्मनाम्॥ 176॥ अधो वेत्रासनाकारो मध्येऽसौ झल्लरीसमः। ऊर्ध्वं मृदंग-संस्थानो लोकः सर्वज्ञवर्णितः॥ 177॥ अर्थ-आकाश के बीचोंबीच धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय तथा काल परमाणुओं से सर्वत्र व्याप्त एवं पुद्गलद्रव्य से भरा हुआ लोक जीवों के रहने का क्षेत्र है। लोक का आकार स्थूल रूप से देखें तो वह अधोभाग में वेंत के आसन (मूंढा) समान है, मध्य में झल्लर के समान सपाट है, और ऊपर की तरफ मृदंग के समान है; ऐसा सर्व चराचर के ज्ञाता भगवान ने कहा है। तिर्यंचों का क्षेत्र विभाग सर्वः सामान्यतो लोकः तिरश्चां क्षेत्रमिष्यते। श्वाभ्र-मानुष-देवानामथातस्तद्विभज्यते॥ 178॥ अर्थ-तिर्यंच त्रस, पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्यन्त जीव यद्यपि मध्यलोक में ही रहते हैं, तो भी एकेन्द्रिय तिर्यंच सर्वलोक भर में रहनेवाले हैं, इसलिए तिर्यंचों का क्षेत्रविभाग कुछ भी विशेष न दिखलाकर केवल देव, मनुष्य तथा नारकों का क्षेत्र विभाग कहते हैं। नारकों का क्षेत्र-विभाग अधो भागे हि लोकस्य सन्ति रत्नप्रभादयः। घनाम्बुपवनाकाशे प्रतिष्ठाः सप्त भूमयः॥ 179॥ रत्नप्रभादिमा भूमिः ततोऽधः शर्कराप्रभा। स्याद् वालुकाप्रभातोऽधस्ततः पंकप्रभा मताः॥ 180॥ ततो धूमप्रभाधस्तात् ततोऽधस्तात्तमःप्रभा। तमस्तमःप्रभातोऽधो भुवामित्थं व्यवस्थितिः॥ 181॥ अर्थ-इस लोक के अधोभाग में रत्नप्रभादि सात नरकभूमि हैं। प्रत्येक भूमि के नीचे आश्रय देनेवाले तीन प्रकार के पवन हैं। प्रथम घनपवन है, दूसरा अम्बुपवन है, तीसरा सूक्ष्मपवन है। ऐसे तीनतीन पवन सर्वत्र हैं। प्रत्येक बीस-बीस हजार योजन फैले हुए हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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