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________________ द्वितीय अधिकार :: 87 नीचे की तरफ सबसे प्रथम रत्नप्रभा भूमि है, फिर दूसरी भूमि शर्कराप्रभा है। इसके नीचे बालुकाप्रभा है। इसके भी नीचे चौथी भूमि पंकप्रभा है। इसके बाद पाँचवीं धूमप्रभा है। फिर नीचे छठी भूमि तम:प्रभा है। इसके भी नीचे सातवीं भूमि तमस्तमःप्रभा अथवा महातमःप्रभा है। इस प्रकार सात भूमियों के स्वरूप नीचे-नीचे समझने चाहिए। ये नाम रंग-स्वरूप की अपेक्षा से कहे गये हैं। वास्तविक धर्मा वंशादि नाम हैं जो कि पहले कहे जा चुके हैं। नरकों में उत्पत्तिस्थानों की बिल संख्या त्रिंशन्नरकलक्षाणि भवन्त्युपरिमक्षितौ। अधः पञ्चकृतिस्तस्यास्ततोऽधो दश पञ्च च॥ 182॥ ततोऽधो दशलक्षाणि, त्रीणि लक्षाण्यधस्ततः। पञ्चोनं लक्ष्मेकं तु ततोऽधः पञ्च तान्यतः॥ 183॥ अर्थ-प्रथम नरक में नारक जीव उत्पन्न होने के स्थान तीस लाख हैं। दूसरे में पच्चीस लाख हैं। तीसरे में पन्द्रह लाख हैं। चौथे में दश लाख हैं। पाँचवें में तीन लाख हैं। छठे में पाँच कम एक लाख हैं। सातवें में पाँच हैं। सबका जोड़ चौरासी लाख होता है। नरकों में कर्मकृत दुःख परिणाम-वपुर्लेश्या-वेदना-विक्रियादिभिः। अत्यन्तमशुभैर्जीवा भवन्त्येतेषु नारकाः ॥ 184॥ अर्थ-ऊपर कहे हुए बिलों में नारक जीव उत्पन्न होते हैं। इनके शरीर के स्पर्शादिक पर्याय अत्यन्त असह्य होते हैं। शरीर अति असुहावना होता है। शरीर की लेश्या का वर्ण अति अशुभ रहता है। वेदना इन्हें अत्यन्त रहती है। शरीर को नानारूप करने की शक्ति होती है, परन्तु वह भी अति दु:ख के कामों में लगाई जाती है। नरकों में स्व-परकृत दुःख अन्योऽन्योऽदीरितासह्यदुःखभाजो भवन्ति ते। संक्लिष्टासुरनिर्वृत्तदुःखाश्चोर्ध्वक्षितित्रये॥ 185॥ पाकान्नरकगत्यास्ते तथा च नरकायुषः। भुञ्जते दुष्कृतं घोरं चिरं सप्तक्षितिस्थिताः॥ 186॥ अर्थ-ऊपर की तीन नरकभूमियों में नारकों को कुछ दुष्ट अम्बरीश जाति के असुर परस्पर में भिड़ाया करते हैं, जिससे वे असह्य दुःख भोगते हैं। स्वयं भी नारकी जीव परस्पर में लड़ते भिड़ते रहते ही है, उससे भी अति दुःख भोगना पड़ता है। परस्पर लड़-भिड़कर एक-दूसरे को दुःख देने की चाल सातों ही नरकों में एक समान है। सातों भूमियों के जीव अशुभ नरकगति तथा नरकायु कर्म के उदयवश Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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