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द्वितीय अधिकार :: 85
ततः परं तु ये देवा: ते सर्वेऽनन्तरे भवे।
उत्पद्यन्ते मनुष्येषु न हि तिर्यक्षु जातुचित्॥ 170॥ अर्थ-ईशान स्वर्ग तक के देव मरकर एकेन्द्रिय तक होते हैं और बारहवें सहस्रार स्वर्ग तक के देव मरकर तिर्यंच भी हो सकते हैं तथा मनुष्य भी हो सकते हैं। यहाँ से ऊपर के जितने देव हैं वे मरकर मनुष्य ही होते हैं, तिर्यंच कभी नहीं होते।
शलाकापुरुषा न स्युभम-ज्योतिष्क-भावनाः ।
अनन्तरभवे तेषां भाज्या भवति निर्वृतिः॥ 171॥ अर्थ-व्यन्तर, ज्योतिष्क तथा भवनवासी देवों में से मरकर आनेवाले जीव शलाकापुरुष नहीं हो सकते हैं, परन्तु तद्भव मुक्त हो सकते हैं। कल्पातीत देव कहाँ उपज सकते हैं?
ततः परं विकल्प्यन्ते यावद् ग्रैवेयकं सुराः।
शलाकापुरुषत्वेन निर्वाणगमनेन च ॥ 172॥ अर्थ- इसके ऊपर जितने ग्रैवेयकपर्यन्त के देव हैं वे शलाकापुरुष भी हो सकते हैं तथा निर्वाण भी प्राप्त कर सकते हैं। अनुदिशादि देव मरकर कहाँ उपज सकते हैं?
तीर्थेशरामचक्रित्वे निर्वाणगमनेन च।
च्युताः सन्तो विकल्प्यन्तेऽनुदिशानुत्तरामरः॥ 173 ।। अर्थ-ग्रैवेयक के ऊपर अनुदिश एवं अनुत्तर विमानवासी जो देव हैं वे जब मरकर मनुष्य हो जाते हैं तब उसी भव से निर्वाण प्राप्त कर सकते हैं और तीर्थंकर, राम (बलभद्र) तथा चक्रवर्ती तक भी हो सकते हैं।
कौन से कल्पातीत देव चरमशरीरी हैं?
भाज्याः तीर्थेश-चक्रित्वे च्युताः सर्वार्थसिद्धितः।
विकल्प्या रामभावेऽपि सिद्ध्यन्ति नियमात्पुनः॥ 174॥ अर्थ-सर्वार्थसिद्धि से आये हुए देव तीर्थंकर एवं चक्रवर्ती हो सकते हैं, बलराम भी हो सकते हैं, परन्तु उसी मनुष्य भव से वे मोक्ष को अवश्य पाते हैं।
कल्पवासी पर्यन्त चरमशरीरी कौन से देव हैं?
दक्षिणेन्द्रास्तथा लोकपाला लौकान्तिकाः शची। शक्रश्च नियमाच्च्युत्वा सर्वे ते यान्ति निर्वृतिम्॥ 175॥
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