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________________ 84 :: तत्त्वार्थसार अर्थ – भोगभूमिज मिथ्यादृष्टि मनुष्य, तिर्यंच तथा उत्कृष्ट तापसी ये सभी मरकर ज्योतिष्क देव होते हैं। - इतर तपस्वियों का जन्म ब्रह्मलोके प्रजायन्ते परिव्राजः प्रकर्षतः । आजीवास्तु सहस्रारं प्रकर्षेण प्रयान्ति हि ॥ 164 ॥ अर्थ — संन्यासी लोग अधिक से अधिक ब्रह्मलोक नामक पाँचवें स्वर्गपर्यन्त मरकर उत्पन्न होते हैं । आजीवक नाम के साधु बारहवें सहस्रार स्वर्गपर्यन्त मरकर जन्म लेते हैं, यहाँ से ऊपर वे नहीं जाते । सम्यक्त्वी मनुष्य और देशव्रती तिर्यंच का जन्म - उत्पद्यन्ते सहस्त्रारे तिर्यंचो व्रतसंयुताः । अत्रैव हि प्रजायन्ते सम्यक्त्वाराधका नराः ॥ 165 ॥ अर्थ - व्रतयुक्त पंचमगुणस्थानवर्ती तिर्यंच मरकर बारहवें स्वर्ग तक उत्पन्न होते हैं । सम्यक्त्व के धारी चतुर्थ गुणस्थानवर्ती मनुष्य भी मरकर बारहवें स्वर्ग तक जाते हैं। अन्यलिंगियों के जन्म की मर्यादा न विद्यते परं ह्यस्मादुपपादोऽन्यलिंगिनाम्। निर्ग्रन्थश्रावका ये ते जायन्ते यावदच्युतम् ॥ 166 ॥ अर्थ-निर्ग्रन्थ दिगम्बर वेष के अतिरिक्त वेषधारी कोई भी साधु मरकर बारहवें स्वर्ग से ऊपर नहीं जन्म ले सकते हैं—यह नियम है। आर्यिका तथा निष्परिग्रह श्रावक मरकर अच्युत नाम के सोलहवें स्वर्ग तक उपजते हैं। कल्पातीत देवों में कौन उपजते हैं ? Jain Educationa International धृत्वा निर्ग्रन्थलिंगं ये, प्रकृष्टं कुर्वते तपः । अन्त्यग्रैवेयकं यावदभव्याः खलु यान्ति ते ॥ 167 ॥ यावत्सर्वार्थसिद्धिं तु, निर्ग्रन्था हि ततः परम् । उत्पद्यन्ते तपोयुक्ता रत्नत्रयपवित्रताः ॥ 168 ॥ अर्थ- जो अभव्य जीव निर्ग्रन्थ वेष धारण कर अतिशय तप करते हैं वे मरकर अन्तिम ग्रैवेयक पर्यन्त जाते हैं । किन्तु ग्रैवेयक के भी ऊपर सर्वार्थसिद्धि अन्तिम विमान पर्यन्त वे ही जीव उपजते हैं जो भव्य हैं और रत्नत्रय धारण कर उत्कृष्ट तप करते हैं । कल्पवासी देव मरकर कहाँ उपजते हैं ? - भाज्या एकेन्द्रियत्वेन देवा ऐशानतश्च्युताः । तिर्यक्त्व - मानुषत्वाभ्यामासहस्त्रारतः पुनः ॥ 169 ॥ For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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