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द्वितीय अधिकार :: 79
का अर्थ चरमशरीर की केवल प्रशंसा है, अधिक कुछ भी नियम नहीं समझना चाहिए। जो लोग उत्तम का अर्थ मोक्षगामियों में से त्रिषष्टिशलाका वाले अथवा कामदेवादि पदवीयुक्त ऐसा करते हैं वह ठीक नहीं है, अर्थात् मोक्षगामी जीव सभी अनपवर्त्य आयुवाले मानने चाहिए। शेष जीवों का घात हो सकता है।
सर्वजीवों का शरीरमान
घर्मायां सप्त चापानि, सपादं च करत्रयम्।
उत्सेधः स्यात्ततोऽन्यासु द्विगुणो द्विगुणो हि सः॥ 136॥ अर्थ- पहले नरक में रहनेवाले नारकों के शरीर की ऊँचाई सात धनुष तथा सवा तीन हाथ प्रमाण होती है। नीचे सातों नरकपर्यन्त प्रत्येक नरक के नारकियों की ऊँचाई दूनी-दूनी है। दो हाथ प्रमाण को गज कहते हैं। चार हाथ या दो गज को दंड या धनुष कहते हैं।
शतानि पञ्च चापानां पञ्चविंशतिरेव च।
प्रकर्षेण मनुष्याणामुत्सेधः कर्मभूमिषु॥ 137॥ अर्थ-कर्मभूमि के मनुष्यों की सबसे अधिक ऊँचाई सवा पाँच सौ धनुष हो सकती है।
एकः क्रोशो जघन्यासु द्वौ क्रोशौ मध्यमासु च।
क्रोशत्रयं प्रकृष्टासु भोगभूषु समुन्नतिः॥ 138॥ अर्थ-जघन्य भोगभूमियों के मनुष्यों की ऊँचाई एक कोस, मध्यम भोगभूमियों में दो कोस, उत्कृष्ट भोगभूमियों में तीन कोस प्रमाण रहती है।
1. चरमांगधरावेतौ नानयोः काचन क्षतिः। यह वचन श्री जिनसेनाचार्य के महापुराण पर्व 36 में लिखा है। इसका अर्थ यह है
कि भरत व बाहुबली ये दोनों मोक्षगामी जीव हैं। केवल चरमशरीरी होने का कारण दिखाकर अक्षय बताने से भी यही बात सिद्ध होती है कि यावत् चरमशरीरी जीव अनपवर्त्य आयुवाले ही होने चाहिए। 1. विष, वेदना, रक्तक्षय, भय, शस्त्रघात, संक्लेश,
श्वासावरोध तथा आहारनिरोध ये असमय मरने के कारण हैं। 2. विसवेयणरत्तक्खयभयसत्थग्गहणसंकिलेसेहिं। उस्सासाहाराणं णिरोहदो छिज्जदे आऊ॥ गो. क., गा. 57 3. अन्त-आदि-मध्य से रहित अविभागी अतीन्द्रिय एकेक रसगन्धवर्ण से युक्त दो स्पर्शयुक्त परमाणु होता है। अनन्तानन्तपरमाणुसंघात
के परिमाण से एक उत्संज्ञासंज्ञा नाम का स्कन्ध होता है। आठ उत्संज्ञा संज्ञा की एक संज्ञासंज्ञा, आठ संज्ञासंज्ञा का एक रेणु। आठ रेणुओं का एक त्रसरेणु । आठ त्रसरेणुओं का एक रथरेणु, आठ रथरेणुओं से एक देवकुर्वादि मनुष्य की केशाग्रकोटी होती है। उन आठ की एक हरिवर्षादि मनुष्य की केशाग्रकोटी। उन आठ की एक हैमवत मनुष्य केशाग्र कोटी। इन आठों की एक भरत मनुष्य केशाग्रकोटी। इन आठ कोटी की एक लीख। आठ लीख की एक यूका। आठ यूका का एक यवमध्य। आठ यवमध्य का एक उत्सेधांगुल । इसी अंगुल के प्रमाण से (धनुष्यादि प्रमाण बनाकर) नारक, तिर्यंच, देव, मनुष्यों का तथा अकृत्रिम जिनालय प्रतिमा इत्यादि का शरीरोत्सेध निश्चित किया जाता है। उक्त अंगुल का छह गुणा एक पैर। बारह अंगुल प्रमाण वितस्ति (विलंयद)। दो वितस्ति का एक हाथ। दो हाथ का एक किष्कु (गज)। दो किष्कु का एक दंड या धनुष। दो हजार धनुष का एक कोस। चार कोस का एक योजन होता है। (रा.वा. 3/38, वा. 6)
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