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78 :: तत्त्वार्थसार
सागर उत्कृष्ट आयु हो जाती है। इसके ऊपर एक और पटल है जिसे अनुदिश कहते हैं, इस पटल के एक बीचोंबीच व आठ दिशाओं में, ऐसे नौ विमान हैं। इनमें एक सागर और भी पहले से बढ़ जाता है जिससे कि उत्कृष्ट आयु का प्रमाण बत्तीस सागर हो जाता है। इससे ऊपर एक ही पटल में पाँच विमान और भी हैं। इनके नाम विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित तथा सर्वार्थसिद्धि हैं। पहले चार पटल चारों दिशाओं में हैं और सर्वार्थसिद्धि मध्य में है। यहाँ एक सागर और भी बढ़ने से तेतीस सागर तक उत्कृष्ट आयु हो जाती है। वैमानिक देवों की जघन्य आयु
साधिकं पल्यमायुः स्यात् सौधर्मैशानयोर्द्वयोः ॥ 132॥ परतः परतः पूर्वं शेषेष च जघन्यतः।।
आयुः सर्वार्थसिद्धौ तु जघन्यं नैव विद्यते॥ 133॥ अर्थ-सौधर्म व ईशान इन पहले दो स्वर्गों में जघन्य आयु एक पल्य से कुछ अधिक है। यहाँ से ऊपर के स्थानों में अन्त तक अपने से नीचे-नीचे की उत्कृष्ट आयु, ऊपर-ऊपर की जघन्य आयु समझना चाहिए। हाँ, अन्तिम पटल के मध्यवर्ती सर्वार्थसिद्धि विमान में जघन्य आयु नहीं मिलती। वहाँ केवल तेतीस सागर प्रमाण उत्कृष्ट आयु ही रहती है। मनुष्य एवं तिर्यंचों की जघन्य आयु
अन्यत्रानपमृत्युभ्यः सर्वेषामपि देहिनाम्।
अन्तर्मुहूर्तमित्येषां जघन्येनायुरिष्यते॥ 134॥ __ अर्थ-मनुष्य व तिर्यंचों में से कुछ की आयु जिसका बीच में घात नहीं होता, उन्हें छोड़कर शेष तिर्यंच-मनुष्यों में जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त मात्र तक होती है। किनकी आयु नहीं घटती है
असंख्येयसमायुष्काश्चरमोत्तममूर्तयः।
देवाश्च नारकाश्चैषामपमृत्युर्न विद्यते॥ 135॥ अर्थ-असंख्यात वर्ष की आयुवाले भोगभूमिज मनुष्य व तिर्यंच, कर्मभूमि के उसी जन्म से मुक्त होनेवाले मनुष्य तथा देव, नारकी-इतने जीवों का, जो आयु काल नियत हुआ हो उसका शस्रादि निमित्तों से उपघात नहीं हो सकता है। यद्यपि अन्त:कृत केवली आदि कुछ ऐसे हुए हैं कि जिनका शरीर उपसर्गों से विदीर्ण किया गया था, परन्तु उन्हें भी हम अनपवायु वाले ही मानते हैं। सूत्रकार ने तथा इस ग्रन्थ के कर्ता ने भी उन चरमशरीरी जीवों के आयु को अनपवर्त्य बताया है कि जो उत्तम' हों, परन्तु उत्तम 1. उत्तमग्रहणं चरमस्योत्कृष्टत्वख्यापनार्थं नार्थान्तरविशेषोऽस्ति। सर्वा.सि., वृ. 365 ॥ चरमग्रहणमेवेति चेन्न तस्योत्तमत्वप्रतिपादनार्थत्वात्।
(रा.वा. 2/53, वा. 9)। चरमदेहा इति वा पाठ इति सर्वा.सि., रा.वा.। 'चरमदेहा' इतना ही पाठ कोई-कोई मानते हैं ऐसा सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक इन दोनों में उल्लेख किया है।
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