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________________ प्रस्तावना :: 11 आत्मा को छोड़ो। जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हुई है ऐसा यह आत्मा आज अपने आत्मारूपी अनादि जनक-जननी के पास जा रहा है। अहो! इस पुरुष के शरीर की रमणी (स्त्री) के आत्मा, तु इस पुरुष के आत्मा को रमण नहीं कराता, ऐसा तू निश्चय से जान, इसलिए तू इस आत्मा को छोड़। जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हुई है ऐसा यह आत्मा आज अपनी स्वानुभूतिरूपी अनादिरमणी के पास जा रहा है। __अहो! इस पुरुष के शरीर के पुत्र के आत्मा, तू इस पुरुष के आत्मा का जन्य (पैदा किया पुत्र) नहीं है, ऐसा तू निश्चय से जान, इसलिए तू इस आत्मा को छोड़। जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हुई है, ऐसा यह आत्मा आज अपने आत्मारूपी अनादि जन्य के पास जा रहा है। इस प्रकार बड़ों से, स्त्री, पुत्रों से अपने को छुड़ाकर पंचाचार अंगीकार करता है। इस प्रकार से जो भव्य जीव, संसार-शरीर एवं भोगों के क्षणिक, तुच्छ सुख के यथार्थ स्वरूप को समझकर विषयभोगों से ऊब जाते हैं, तब वे सच्चे एवं अनन्त सुख स्वरूप मोक्ष को प्राप्त करने के लिए वैराग्य धारण कर लेते हैं। इस परम वैराग्य को धारण करना ही अपने निज घर की ओर चल देना है, जिसे आचार्यों ने 'मोक्षमार्ग' कहा है। __ अपने हित को चाहनेवाला कोई एक बुद्धिमान निकट भव्य था। वह अत्यन्त रमणीय भव्यजीवों के विश्राम के योग्य किसी एकान्त आश्रम में गया। वहाँ उसने मुनियों की सभा में बैठे हुए, वचन बोले बिना ही, मात्र अपने शरीर की आकृति से मानो मूर्तिमान्, मोक्षमार्ग का निरूपण करने वाले, युक्ति तथा आगम में कुशल, दूसरे जीवों के हित का मुख्य रूप से प्रतिपादन करने वाले और आर्य पुरुषों के द्वारा सेवनीय प्रधान निर्ग्रन्थ आचार्य के पास जाकर, विनय के साथ पूछा-"भगवन्! आत्मा का हित क्या है?" आचार्य ने उत्तर दिया-"आत्मा का हित मोक्ष है।" भव्य जीव ने पुनः पूछा-"मोक्ष का क्या स्वरूप है और उसकी प्राप्ति का उपाय क्या है?" आचार्य ने कहा कि-जब आत्मा भावकर्म, द्रव्यकर्ममल कलंक और नोकर्म (शरीर) को अपने से सर्वथा जुदा कर देता है, तब उसके अचिन्त्य स्वाभाविक ज्ञानादि गुणरूप और अव्याबाध सुखरूप जो सर्वथा विलक्षण अवस्था उत्पन्न होती है, उसे मोक्ष कहते हैं।" विश्व के अधिकांशतः धर्म-मत-सम्प्रदाय भी मोक्ष को स्वीकार करते हैं, परन्तु उन सबके मोक्ष सार्वकालिक न होकर अल्पकालिक एवं सदोष माने गये हैं। वह मोक्ष अत्यन्त परोक्ष है, अतः अपने को तीर्थंकर मानने वाले अल्प ज्ञानी प्रवादी लोग मोक्ष के स्वरूप को स्पर्श नहीं करने वाले और असत्य युक्ति-रूप वचनों द्वारा उसका स्वरूप सर्वथा अन्य प्रकार से बतलाते हैं। यथा-(1. सांख्य) : पुरुष का स्वरूप चैतन्य है जो ज्ञेय के ज्ञान से रहित हैं। किन्तु ऐसा चैतन्य सत्स्वरूप होकर भी असत् ही है, क्योंकि ऐसा मानने पर उसका स्व-पर व्यवसाय लक्षण कोई आकार अर्थात् स्वरूप प्राप्त नहीं होता। (2. वैशेषिक) : बुद्धि आदि विशेष गुणों का नाश होना ही मोक्ष है। किन्तु यह कल्पना भी असमीचीन है, क्योंकि विशेष लक्षण से रहित वस्तु नहीं होती। (3. बौद्ध): जिस प्रकार दीपक बुझ जाता है उसी प्रकार आत्मा की सन्तान का विच्छेद होना ही मोक्ष है। किन्तु जैसे गधे के सींग केवल कल्पना के विषय होते हैं, स्वरूपसत नहीं होते, वैसे ही इस प्रकार का मोक्ष भी केवल कल्पना का विषय है स्वरूपसत् नहीं है। यह बात स्वयं उन्हीं के कथन से सिद्ध हो जाती है।2 10. प्र. सा., गा. 202. पृ. 481-82 11. सर्वा. सि., मंगलाचरण वृ. 1 12. सर्वा.सि., मंगलाचरण वृ. 2 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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