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________________ 10 :: तत्त्वार्थसार दक्षिण भारत के महानतम कवि तिरुवल्लुवराचार्य, जिन्होंने दो हजार वर्ष पूर्व तिरुक्कुरल काव्य लिखा था, आज जिसका अनुवाद विश्व की अस्सी प्रमुख भाषाओं में है जिसे तमिल देश में पाँचवाँ वेद माना जाता है, प्रायः हर धर्म-संस्कृति के लोग जिसका समादर करते हैं, उसमें एक बहत ही श्रेष्ठ आध्यात्मिक वाक्य संकलित है, जिस वाक्य को पढ़-सुनकर एक नयी आध्यात्मिक सोच का जन्म होता है : आत्मनो वै निजावास: किंस्विन्नास्तीह भो जनाः। हीनस्थाने यतो दहे भुङ्क्ते वासेन पीडनम्।। 10।। -हे आत्मन्! क्या तेरा कोई निज घर नहीं है, जो तू ऐसे अपवित्र शरीर में निवास करता है?? इस अमर वाक्य में विचारणीय विषय यह है कि आचार्य इस भगवत् स्वरूप आत्मा का अपना कोई निज घर मानते हैं, अतः उन्होंने अपनी आत्मा से ही यह प्रश्न कर दिया। जैसे कोई, किसी आवारा, बे-सहारा भटकते हुए व्यक्ति को देखकर कह देते हैं कि इसका अपना कोई रहने का निज घर-द्वार या ठिकाना नहीं है, जो यह इधर-उधर असहाय परिभ्रमण कर रहा है! उसी प्रकार इस चैतन्य चमत्कारमयी भगवान् आत्मा का निज घर मल-मूत्र भरा शरीररूपी पिटारा नहीं हो सकता है। कवि दौलतराम ने भी कहा है : "हम तो कबहुँ न निज घर आये, पर घर फिरत बहुत दिन बीते नाम अनेक धराए... हम तो कबहुँ न..." संसार के जीव जब दुःख से घबराते हैं तब अपने हित के बारे में सोचते हैं। अपने हित के बारे में सोच शुरू होना ही अपने घर की याद आना है, वैरागी होना है। वह वैरागी अपने बन्धुवर्ग को इस प्रकार सम्बोधन करता है : "आपिच्छ बन्धुवग्गं विमोचिदो गुरुकलत्तपुत्तेहिं। आसिज्ज णाण-दंसण-चरित्त तव वीरियाया।।202।।" प्रवचनसार अर्थ-जो मुनि होना चाहता है, वह पहले ही बन्धुवर्ग (सगे सम्बन्धियों) से पूछता है, गुरुजनों (बड़ों) से तथा स्त्री और पुत्रों से अपने को छुड़ाता है। ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार तथा वीर्याचार को अंगीकार करने के लिए वह इस प्रकार अपने बन्धुवर्ग से कहता है अहो! इस पुरुष के शरीर के बन्धुवर्ग में प्रवर्तमान आत्माओ! इस पुरुष का आत्मा किंचित् भी तुम्हारा नहीं है, इस प्रकार तुम निश्चय से जानो; इसलिए मैं तुमसे विदा लेता हूँ। जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हुई है ऐसा यह आत्मा, आज अपने आत्मारूपी अनादि बन्धु के पास जा रहा है। अहो! इस पुरुष के शरीर के जनक (पिता) के आत्मा, अहो! इस शरीर की जननी (माता) के आत्मा, इस पुरुष का आत्मा तुम्हारे द्वारा जनित (उत्पन्न) नहीं है, ऐसा तुम निश्चय से जानो। इसलिए तुम इस 8. तिरु., भा. ज्ञा. पी., प्र. 9. तिरु., अ. 6 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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