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12 :: तत्त्वार्थसार
मोक्ष जाने के पहले सभी मजहब, धर्म, संस्कृति, सम्प्रदाय के व्यक्ति को किसी-न-किसी द्रव्य, तत्त्व, पदार्थ आदि की पूर्ण श्रद्धा का अवलम्बन जरूरी है, जिससे उनके अपने-अपने भेद-प्रभेद परिभाषाएँ एवं स्वरूप हैं, उपादेयता है, जिनकी श्रद्धा-विश्वास के बिना उस धर्म का स्वरूप पुष्ट नहीं होता है।
मोक्ष जाने की प्रक्रिया में इन द्रव्य, तत्त्व एवं पदार्थों आदि का श्रद्धान-ज्ञान-अनुभव करने का मुख्य प्रयोजन क्या है? समस्त प्राणियों में मनुष्य जीवन ही पर्ण विकसित, विवेकवान आदि विशेषताओं को धारण करता है। मनुष्य की प्राकृतिक जिज्ञासाएँ, चाहे जीव सम्बन्धी हों या अजीव सम्बन्धी हों, हमेशा जाग्रत रहती हैं। इन जीवाजीव सम्बन्धी जिज्ञासाओं के समाधान के लिए कोई-न-कोई हेतु निमित्त कारण खोजता रहता है। इस खोज में मनुष्य, किसी-न-किसी ऐसे व्यक्ति, शक्ति, ईश्वर, प्रभु-परमात्मा, ज्ञानी-विज्ञानी, प्रबुद्ध पुरुष को सम्मिलित करता है, जिससे उनके अपने विचारों की पुष्टि हो सके।
द्रव्य शब्द का उल्लेख जैन और वैशेषिक दर्शन में विशेष रूप से मिलता है। जैन दर्शन में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल को द्रव्य कहते हैं तथा वैशेषिक दर्शन में पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, दिशा, काल और मन इन नौ को द्रव्य कहा है। वैशेषिक दर्शन सम्मत पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और मन, शरीर की अपेक्षा पुदगल द्रव्य में गर्भित हो जाते हैं और आत्मा की अपेक्षा जीव में गर्भित रहते हैं। आकाश, काल और आत्मा (जीव) ये तीन द्रव्य दोनों दर्शन में स्वतन्त्र रूप से माने गये हैं। वैशेषिक दर्शनाभिमत 'दिशा' नामक द्रव्य आकाश का ही विशिष्ट रूप होने से उसमें गर्भित हो जाता है। धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य की अवधारणा वैशेषिक दर्शन में नहीं है, ये दोनों द्रव्य जैन दर्शन में ही निरूपित हैं।
जैन मतानुसार मूल द्रव्य जीव और अजीव ये दो ही हैं, लेकिन अजीव द्रव्य के पाँच भेद हैं, अत: इन छह द्रव्यों में जीवद्रव्य चेतन है और शेष पाँच द्रव्य अचेतन हैं अथवा पुद्गलद्रव्य दृश्यमान होने से सबके अनुभव में आ रहा है। रूप, रस, गन्ध और स्पर्श जिसमें पाया जाता है वह पुद्गल द्रव्य है, अतः जो भी वस्तु रूपादि से सहित होने के कारण दृश्यमान है, वह सब पुद्गल द्रव्य है। जीव के साथ अनादि से लगे हुए कर्म और नोकर्म (शरीर) स्पष्ट रूप से पुद्गल द्रव्य हैं। जीव द्रव्य अमूर्तिक होने से यद्यपि दिखाई नहीं देता है तथापि स्वानुभव के द्वारा उसका बोध होता है। जो सुख-दुःख का अनुभव करता है और जिसे स्मृति तथा प्रत्यभिज्ञान आदि होते हैं, वह जीव द्रव्य है। ज्ञान-दर्शन इसके लक्षण हैं। जीवित और मृत मनुष्य के शरीर की चेष्टा को देखकर जीव का अनुमान अनायास हो जाता है।
हमेशा से ही जीवद्रव्य के बारे में हर धर्म-मजहब की अवधारणा किसी-न-किसी अपेक्षा से अलग-अलग है। जैसे-कोई जीव को ईश्वर का अंश मानते हैं। कोई कई तत्त्वों के संयोग से जीव बनता है ऐसा मानते हैं। कोई शरीर को ही जीव मानकर श्रद्धान करते हैं। जीव को सुख-दुःख देने वाला कोई ईश्वर-प्रभु-परमात्मा है। जीव के अच्छे-बुरे परिणामों-कर्मों का फल भगवान देता है। सृष्टि (जीव) को बनाने वाला कोई ईश्वर, ब्रह्मा है। सृष्टि की रक्षा करने वाला ईश्वर विष्णु है। सृष्टि का संहार करने वाला ईश्वर महेश है। मृत्यु के समय जीव को यमराज, यमदूत, फरिश्ते, काल, मृत्यु आदि ले जाते हैं। ऐसी अनेक अवधारणाएँ हमें कई संस्कृतियोंसंस्कारों से पढ़ने-सुनने को मिलती हैं।
जैनाचार्यों ने जीवादि द्रव्यों के स्वरूप की पूर्णता का कथन आगम, युक्ति, प्रमाण, नय, निक्षेप आदि के द्वारा सिद्ध ही नहीं किया, बल्कि अन्य लोगों की कल्पित तथा दूषित मान्यताओं का खण्डन भी किया है।
मुख्य रूप से जीवद्रव्य की संख्या अनन्त है तथा एक जीव के प्रदेशों की संख्या असंख्यात है। जीव को
13. तत्त्वा.सा., प्रस्ता. पं. पन्ना सा.
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