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70 :: तत्त्वार्थसार
आहार (चौदहवीं मार्गणा)
गृह्णाति देह-पर्याप्ति योग्यान् यः खलु पुद्गलान्।
आहारकः स विज्ञेयः ततोऽनाहारकोऽन्यथा॥94॥ अर्थ-औदारिक, वैक्रियिक व आहारक शरीर तथा छह पर्याप्तियों में से यथायोग्य पर्याप्ति-इन सभी की रचना होने के लिए इस योग्य पदगलवर्गणाओं का ग्रहण करना-आहार कहलाता है। ऐसा आहार जो जीव जिस समय ग्रहण करता रहता है उसे उस समय आहारक जीव कहते हैं। जो जीव जिस समय ऐसा आहार ग्रहण नहीं करता उसे उस समय अनाहारक कहते हैं। कर्म का ग्रहण करना भी एक आहार है, परन्तु आहारक-अनाहारक के विचार में उसको गिना नहीं जाता। यदि कर्म ग्रहण करनेवाले को आहारक माना जाए तो संसार में अनाहारक ही नहीं हो सकेगा। जब तक संसार है तब तक कर्मबन्धन सदा ही होता है, इसलिए कदाचित् प्राप्त होनेवाले शरीर की सामग्री को ही आहार मानना ठीक है।
आहार रहित जीव
अस्त्यनाहारकोऽयोग: समुद्घातगतः परः।
सासनो विग्रहगतौ, मिथ्यादृष्टिस्ततोऽव्रतः॥ 95॥ अर्थ-अयोगकेवली (चौदहवें अन्तिम गुणस्थानवी जीव), समुद्घात करनेवाले सयोगकेवली (तेरहवें गुणस्थान के जीव), योगरहित सिद्ध परमात्मा और विग्रहगति वाले जीव सामान्यतः अनाहारक होते हैं। एक शरीर छोड़कर दूसरा नवीन शरीर धारण करने के लिए जाते हुए जीव जब तक अन्तराल में रहते हैं, तब तक की गति को विग्रहगति कहते हैं। विग्रहगति में रहनेवाले पहले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती, दूसरे सासादन-द्वितीय गुणस्थानवर्ती, तीसरे असंयत-चतुर्थ गुणस्थानवर्ती ये तीन गुणस्थानवी जीव ही हो सकते हैं। किसी गुणस्थान से भी जीव मरण करता हो, परन्तु विग्रहगति में उक्त तीन गुणस्थानों से अधिक गुणस्थान नहीं रह सकते हैं।
तेरहवें गुणस्थानवी योगी, तेरहवें गुणस्थान का कुछ अन्तिम समय शेष रह जाने पर यदि आयु, नाम, गोत्र, वेदनीय इन शेष रहे हुए अघाति चार कर्मों की स्थिति हीनाधिक हो तो उसे सम करने के लिए समुद्घात क्रिया करते हैं। इस समुद्घात क्रिया का फल यह है कि आयुकर्म के समान उक्त तीनों कर्मों की स्थिति बन जाती है, इसलिए आयु समाप्त होते ही शेष तीनों कर्म भी निर्जीर्ण हो जाते हैं। चारों घाति कर्म तो तेरहवें गुणस्थान तक ही नि:शेष क्षीण हो चुकते हैं, इसलिए अन्तसमय में उन्हें सिद्ध होने से कोई भी बाधा नहीं पहुंचा सकता है।
प्रत्येक आत्मा के प्रदेश तो लोक के बराबर ही होते हैं, परन्तु संसार में शरीर की परतन्त्रता से शरीर मात्र होकर रहते हैं। जब किसी प्रकार का समुद्घात होनेवाला हो तो मूल शरीर को छोड़े बिना आत्मप्रदेश बाहर निकलते हैं और फिर अन्तर्मुहूर्त के भीतर ही शरीर के भीतर संकुचित होकर समा जाते हैं, इसी का नाम समुद्घात है।
समुद्घात होने के प्रयोजन व निमित्त सात हैं :
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