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________________ द्वितीय अधिकार :: 69 जाता है जो कि मूल मिथ्यात्व की जाति का होता है । यह कर्म भी मूल मिथ्यात्व की तरह ही सम्यक्त्व का घात करता है, परन्तु मूलशक्ति का भेद हो जाने से फिर उसमें अनन्त संसार के बढ़ाने की योग्यता नहीं रह जाती, अतएव एक बार उत्पन्न हुआ सम्यक्त्व चाहे वह मुहूर्त के भीतर ही नष्ट हो जाए, परन्तु अपने स्वामी की संसार दुःख में रहने की स्थिति को अर्धपुद्गल' - परिवर्तन-प्रमाण समय से अधिक नहीं रहने देता और तबसे लेकर उस जीव में फिर क्षायिकसम्यग्दर्शन हुए पर्यन्त मिथ्यात्व के तीन-तीन ही टुकड़े बने रहते हैं फिर उनका एक पिंड कभी नहीं होता, इसीलिए फिर जब कभी सम्यक्त्व उसे हो, तो सत् कर्मों की उपशमादि व्यवस्था करनी पड़ती है । औपशमिक सम्यग्दर्शन उक्त सातों के उपशम से होता है। क्षायिक सातों का पूर्ण क्षय होने पर होता है और क्षायोपशमिक हो तो सम्यक्त्व प्रकृति का उदय व बाकी छह प्रकृतियों का उपशम होने से होता है । यह सम्यग्दर्शनों की व्यवस्था हुई । समय इन सम्यग्दर्शनों में से क्षायिक तो कभी छूटता ही नहीं । शेष दो की यह अवस्था है कि छूटते से कुछ पहले यदि अनन्तानुबन्धी चारों कषायों में से किसी एक का उदय हो जाए और मिथ्यात्व का उदय न पावे तो दूसरा सासादन सम्यक्त्व गुणस्थान हो जाता है। आसादन का अर्थ विराधना है। सम्यक्त्व की विराधना इस समय हो जाती है, इसलिए इसे 'सासादन सम्यक्त्व" नाम प्राप्त होता है । सम्यक्त्व तो अनन्तानुबन्धी का उदय हो जाने से नहीं माना जाता और मिथ्यात्व का उदय न होने से मिथ्यात्व नाम भी प्राप्त नहीं हो सकता। ऐसी अवस्था में इस दशा का 'सासादन सम्यक्त्व' यही नाम उचित है। सम्यङ्मिथ्यात्व यह मिथ्यात्व का दूसरा टुकड़ा है। इसका जब उदय होता है जब सम्यङ्मिथ्यात्व' अवस्था होती है। इसे तीसरा गुणस्थान कहते हैं । मिथ्यात्व कर्म के उदय से मिथ्यात्व परिणाम होता है । यह पहले गुणस्थान होता है । सम्यक्त्व से इसका स्वभाव सर्वथा उलटा है। सम्यक्त्वमार्गणा में 1. सम्यक्त्व, 2. सासादनसम्यक्त्व अर्थात् सम्य मिथ्यात्वरहित अवस्था 3. सम्यङ्मिथ्यात्व अर्थात् अर्धमिथ्यात्व और 4. सम्यक्त्व से उलटा मिथ्यात्व - इन चार प्रकारों का वर्णन करने से सभी संसारी जीव गर्भित हो जाते हैं। 1 संज्ञित्व (तेरहवीं मार्गणा ) - यो हि शिक्षा - क्रियात्मार्थग्राही संज्ञी स उच्यते । अतस्तु विपरीतो यः सोऽसंज्ञी कथितो जिनैः ॥ 93 ॥ अर्थ — जो शिक्षा स्वीकारता हो, दूसरों को कुछ करते हुए देखकर वैसे ही जो कर सकता हो, अपने नामोच्चारण को समझता हो वह जीव संज्ञी कहलाता है । मन रहने के ये सभी चिह्न हैं । ये सभी बातें जिसमें न मिलती हों, उसे जिन भगवान् ने असंज्ञी कहा है। संज्ञी व असंज्ञी - इन दो भेदों में सभी संसारी जीव गर्भित हो जाते हैं । 1. औदारिकादि तीन शरीर व पर्याप्तियों को उत्पन्न करने वाला पुद्गलपिंड एक किसी समय जैसा कुछ वो जो कुछ ग्रहण किया हो वही तथा वैसा ही फिर जब कभी ग्रहण करने तक जो कुछ समय बीतता है उसे 'अर्धपुद्गल परिवर्तन काल' कहते हैं। 2. सम्मत्तरयणपव्वयसिहरादो मिच्छभूमिसमभिमुहो। णासियसम्मत्तो सो सासणणामो मुणेयव्वो ॥20 ॥ आदिमसम्मत्तद्धा समयोदो छावलित्ति वो सेसे। अणअण्णदरुदयादो णासियसम्मोत्ति सासणक्खो सो ॥19॥ 3. सम्मामिच्छुदयेण य जंतंतरसव्वधादिकज्जेण । णय सम्मं मिच्छं पि य सम्मिस्सो होदि परिणामो ॥ 21 ॥ गो. जी. गा. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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