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________________ द्वितीय अधिकार :: 71 1. वेदना तीव्र होने पर एक समुद्घात होता है, उस समय वेदनाशमक किसी वनौषधि आदि पदार्थ की जगह तक आत्मप्रदेश पसरते हैं और उस औषधि आदि का स्पर्श होते ही वेदना कम हो जाती है और आत्मप्रदेश संकुचित हो जाते हैं, इसे वेदना-समुद्घात कहते हैं। 2. कषाय-समुद्घात दूसरा है। किसी पर अति क्रोध हुआ हो, किसी के साथ अति मान हुआ हो, किसी के साथ अति मायाचार किया हो अथवा किसी पदार्थ का अति लोभ बढ़ गया हो तो आत्मप्रदेश कदाचित् उस पदार्थ तक पसरकर उसका स्पर्श करते हैं और फिर शीघ्र ही संकुचित होकर पूर्ण प्रमाण हो जाते हैं। 3. वैक्रियिक समुद्घात तीसरा है। यह कोई भी विक्रिया करते समय होता है। जो विक्रिया की जाती है उसमें आत्मप्रदेश बाहर फैल जाते हैं और विक्रिया मिटते समय संकुचित हो जाते हैं। एक बार की हुई विक्रिया मुहूर्त के भीतर ही मिट जाती है। आगे फिर भी वैसी विक्रिया यदि रखनी हो तो पहली मिटते ही दूसरी कर ली जाती है, वह भी इतनी शीघ्र हो जाती है कि देखने वाला उसका भेद समझ नहीं पाता। 4. मारणान्तिक समुद्घात चौथा है। यह मरने से कुछ समय पहले किसी-किसी को होता है। जीव के लिए उत्तरकाल में जहाँ उपजना है उस क्षेत्र का स्पर्श करके वह संकचित हो जाता है। 5. तैजस व 6. आहारक शरीर समुद्घातरूप ही हैं। 7. केवलिसमुद्घात सातवाँ है। इसके प्रारम्भ होकर संकुचित होने में आठ समय लगते हैं। पहले समय में शरीर के आत्मप्रदेश ऊपर, नीचे की तरफ दंडरूप से वातवलय के सिवाय लोकान्त तक पसर जाते हैं। दूसरे समय में सीधे व बाँयें तरफ लोकान्त तक कपाटरूप से पसर जाते हैं। तीसरे समय में आगे-पीछे की तरफ लोकपर्यन्त प्रतररूप से पसर जाते हैं। चौथे समय में वातवलय में अभी तक जो व्यापे नहीं थे वे पूरे लोक में व्याप जाते हैं। पाँचवें समय में संकुचित होकर तीसरे समय के तुल्य, छठे समय में दसरे समय के तल्य. सातवें समय में प्रथम समय के तुल्य व आठवें समय में शरीर प्रमाण हो जाते हैं, यह केवलिसमुद्घात है। केवलिसमुद्घात के दूसरे, तीसरे, छठे व सातवें इन समयों में औदारिक मिश्र योग हो जाता है और चौथे, पाँचवें इन दो समयों में कार्मणकाययोग रहता है। इसी कार्मण काययोग के दो समय में केवली जीव अनाहारक रहते हैं। समुद्घात के बाकी चार समयों में अनाहारक नहीं होते। अयोगी भगवान् चौदहवें गुणस्थान के यावत्समयों में अनाहारक ही रहते हैं। विग्रहगति के जीवों का अनाहारक स्वरूप आगे कहेंगे। विग्रहगति शब्द का अर्थ विग्रहो हि शरीरं स्यात् तदर्थं या गतिर्भवेत्। विशीर्णपूर्वदेहस्य सा विग्रहगतिः स्मृता॥96॥ अर्थ-विग्रह नाम शरीर का है। इस नये शरीर के लिए जो गमन है वह विग्रहगति-ऐसा अर्थ होता है। जीव जब दूसरा शरीर धारण करने के लिए निकलता है उस समय पहला शरीर छोड करके निकलता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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