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________________ 66 :: तत्त्वार्थसार और भाववेद भिन्न-भिन्न भी होते हैं । यह वेदों की विभिन्नता जीवनव्यापिनी होती है। क्रोधादि कषायों की तरह अन्तर्मुहूर्त में परिवर्तित नहीं होती है। ऐसे मनुष्य भी जिनके द्रव्यवेद पुरुष और भाववेद स्त्री अथवा नपुंसक है मुनिदीक्षा धारणकर मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं, परन्तु जिनके द्रव्यदेव स्त्री अथवा नपुंसक है और भाववेद पुरुष है वे मुनिदीक्षा धारण नहीं कर सकते। ऐसे जीवों की अवस्थिति पंचम गुणस्थान तक ही होती है। भाववेद का सम्बन्ध नवम गुणस्थान के पूर्वार्ध तक ही रहता है उसके आगे अवेद अवस्था होती है। उत्पादः खलु देवीनामैशानो यावदिष्यते। गमनं त्वच्युतं यावत् पुंवेदा हि ततः परम्॥81॥ अर्थ-देवांगनाओं की यदि उत्पत्ति देखें तो सौधर्म, ईशान इन दो स्वर्गों तक होती है, परन्तु वे जाकर रहती हैं अच्युत सोलहवें स्वर्गपर्यन्त, इसलिए सोलहवें स्वर्गपर्यन्त देवगति के जीवों में दो वेद मानने चाहिए। सोलहवें से ऊपर सभी पुरुषवेदी होते हैं। कषाय (छठी मार्गणा) चारित्रपरिणामानां कषायः कषणान्मतः। क्रोधो मानस्तथा माया, लोभश्चेति चतुर्विधः॥ 82॥ अर्थ-चारित्रपरिणामों का कषण अर्थात् हिंसन कषायों से होता है, इसलिए उन्हें कषाय कहते हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ ये कषाय के चार प्रकार हैं। भावार्थ-संक्षेप में कषाय के क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार भेद हैं, परन्तु विशेषता की अपेक्षा ये चारों कषाय अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन के भेद से चारचार प्रकार की होती हैं। जो सम्यक्त्वरूप परिणामों का घात करती है उसे अनन्तानुबन्धी कहते हैं। जो एकदेश चारित्र को न होने दे उसे अप्रत्याख्यानावरण कहते हैं। जिसके उदय से सकलचारित्र न हो सके उसे प्रत्याख्यानावरण कहते हैं और जो यथाख्यातचारित्र को प्रकट न होने दे उसे संज्वलन कहते हैं। अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय दूसरे गुणस्थान तक, अप्रत्याख्यानावरण का उदय चौथे गुणस्थान तक, प्रत्याख्यानावरण का उदय पाँचवें गुणस्थान तक और संज्वलन का उदय दसवें गुणस्थान तक चलता है। उसके आगे ग्यारहवें गुणस्थान में कषायों का उपशम रहता है और बारहवें आदि गुणस्थानों में क्षय रहता है। इन सोलह कषायों के सिवाय हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद ये नौ नोकषाय भी हैं। हास्य, रति आदि के भाव, क्रोधादि के समान चारित्रगुण का पूर्णघात नहीं कर पाते, इसलिए इन्हें नोकषाय-किंचित् कषाय कहते हैं। इनका उदय यथासम्भव नवम गुणस्थान तक रहता है। ज्ञान (सातवीं मार्गणा) तत्त्वार्थस्यावबोधो हि ज्ञानं पञ्चविधं भवेत्। मिथ्यात्वपाककलुषमज्ञानं त्रिविधं पुनः॥ 83॥ अर्थ-तत्त्वार्थों के वास्तविक बोध को पाँच प्रकार का ज्ञान कहते हैं। पहले तीन ज्ञान मिथ्यात्व के उदय से कलुषित हों तो उन्हें तीन अज्ञान कहते हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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