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________________ द्वितीय अधिकार :: 67 संयम ( आठवीं-मार्गणा) संयमः खलु चारित्रमोहस्योपशमादिभिः। प्राण्यक्ष-परिहारः स्यात् पञ्चधा स च वक्ष्यते॥ 84॥ अर्थ-चारित्रमोहनीय कर्म का उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम होने पर संयम होता है। प्राणियों की हिंसा न करना तथा इन्द्रियों को विषयों में न जाने देना यह संयम का अर्थ है। इसका कुछ तो वर्णन छठे गुणस्थानादि के वर्णन करते समय किया है और पाँच भेद करके इसका और भी अधिक वर्णन अन्त में करेंगे। विरताविरतत्वेन संयमासंयमः स्मृतः। प्राणिघाताक्षविषयभावेन स्यादसंयमः॥ 85॥ अर्थ-अर्धविरत अवस्था को विरताविरत एवं संयमासंयम कहते हैं। ऐसी अवस्था का जीव एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा का पूरा बचाव नहीं कर सकता है, केवल त्रस जीव का संकल्पपूर्वक घात करना छोड़ देता है। यह उसकी प्रारम्भिक अवस्था समझनी चाहिए। इससे आगे जैसे-जैसे वह जीवों का घात अधिक-अधिक बचाने लगता है और विषयाकांक्षा कम-कम करता जाता है वैसे-वैसे ही उत्तर अवस्था होती जाती है। ऐसी अवस्था में इस संयमासंयम की ग्यारह प्रतिमा तक कही गयी हैं। जो प्राणिघात की व इन्द्रियविषय की कुछ भी मर्यादा नहीं कर सकता उसे असंयमी कहते हैं। संयमी जीवों के अतिरिक्त सभी जीव इस असंयम-स्वभाव के धारक कहे जाते हैं। प्रत्येक मार्गणा में संसार के जीवों की गणना हो जानी चाहिए, ऐसा मार्गणा के उपदेशक भगवान का अभिप्राय है, इसीलिए संयममार्गणा में संयमविरुद्ध असंयम-स्वभाव का भी ग्रन्थकार वर्णन करते हैं। दर्शन ( नौवीं मार्गणा) एवं उसके भेद दर्शनावरणस्य स्यात् क्षयोपशमसन्निधौ। आलोचनं पदार्थानां, दर्शनं तच्चतुर्विधम्॥86॥ अर्थ-दर्शनावरणकर्म का क्षय अथवा क्षयोपशम होने पर जो पदार्थों का सामान्य अवलोकन हो वह दर्शन है। इस दर्शन के चार भेद हैं जो कि उपयोग के प्रकरण में कहे गये हैं और अब मूल ग्रन्थकार उन्हें स्वयं कहते हैं। चक्षुर्दर्शनमेकं स्यादचक्षुर्दर्शनं तथा। अवधिदर्शनं चैव तथा केवलदर्शनम्॥ 87॥ ___ अर्थ-पहला-चक्षु से होनेवाला चाक्षुष-दर्शन, दूसरा—शेष इन्द्रियों से होनेवाला अचाक्षुष-दर्शन, तीसरा अवधिदर्शन और चौथा केवलदर्शन ये चारों दर्शनों के नाम हैं। लेश्या (दसवीं मार्गणा) योगवृत्तिर्भवेल्लेश्या, कषायोदयरंजिता। भावतो द्रव्यतः कायनामोदयकृतांगरुक्॥88॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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