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________________ द्वितीय अधिकार :: 65 अतिरिक्त किसी से दूर नहीं हो सकती हो। केवली भी इतने समीप में न हों कि स्वयं जाकर वह उनसे कुछ पूछ सके। उस समय आहारक शरीर द्वारा केवली तक पहुँचकर वह तपस्वी अपनी आशंका को दूर कर लेता है और तत्काल ही वापस आकर अपने पूर्व औदारिक शरीर में प्रवेश कर जाता है। मुहूर्त के भीतर ही आहारक शरीर की उत्पत्ति और विलय हो जाते हैं । वह अधिक समय ठहर नहीं सकता । आहारक शरीर किसी वस्तु से टकरा नहीं सकता, इसलिए उसे अव्याघाती कहते हैं । यह शरीर शुभ है अर्थात् पुण्यकर्म के योग से प्राप्त होता है । प्रकट होकर शुद्ध कार्य करता है, इसलिए उसे विशुद्ध भी कहते हैं। ‘प्रमत्तसंयत' यह छठे गुणस्थान का नाम है। इसी गुणस्थान में आहारक शरीर प्रकट हो सकता है, दूसरे में नहीं। आहारक द्विक का बन्ध सातवें गुणस्थान में होता है तथा उदय छठे गुणस्थान में होता है। वेद (पाँचवीं मार्गणा ) - भाववेदस्त्रिभेदः स्यात् नोकषाय विपाकजः । नामोदयनिमित्तस्तु द्रव्यवेदः स च त्रिधा ॥ 79॥ अर्थ - आत्मा को मोहित करनेवाले मोहकर्म में 'नोकषाय' नाम की एक कषाय है । उसी नोकषाय के अन्तर्गत तीन वेदकर्म हैं। उन तीनों वेदकर्मों के उदयवश स्त्री, पुरुष व नपुंसक ये तीन जाति के परिणाम उत्पन्न होते हैं, इन्हीं को वेद कहते हैं । वेद का ही दूसरा नाम लिंग है । अंगोपांगनिर्माण नामकर्म के उदय से द्रव्यवेद प्राप्त होते हैं। ये भी तीन हैं। शरीर में जो स्त्री, पुरुष तथा नपुंसकता सूचक योनि आदि शरीरावयव होते हैं इन्हीं को द्रव्यवेद कहते हैं । भाववेद उसे कहते हैं जो कि भोगने की परस्पर आकांक्षा उत्पन्न होती है, इसलिए द्रव्यवेद और भाववेद सर्वथा समान ही रहते हैं यह नियम नहीं है एवं यह भी नहीं कह सकते हैं कि कौन-सा भाववेद किस में नियम से रहता है । लिंगनियम द्रव्यान्नपुंसकानि स्युः श्वाभ्राः सम्मूर्छिनस्तथा । पल्यायुषो न देवाश्च त्रिवेदा इतरे पुनः ॥ 8 ॥ अर्थ - द्रव्यवेद की अपेक्षा से नारकी तथा सम्मूर्छन तिर्यंच ये सब नपुंसक ही होते हैं। पल्यप्रमाण आयुष्य के धारक भोगभूमिज मनुष्य, तिर्यंच तथा सभी देव – इनमें एक भी नपुंसक नहीं होता। ये सब स्त्री तथा पुरुषवेदी ही होते हैं। शेष रहे हुए कर्मभूमि के पंचेन्द्रिय तिर्यंच तथा यावत्कर्मभूमिगत मनुष्यों में तीनों ही वेद मिलते हैं। Jain Educationa International भावार्थ - भाववेद और द्रव्यवेद की अपेक्षा वेद के दो भेद हैं। इनमें स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद नामक नोकषाय के उदय से रमण की इच्छा होना भाववेद है तथा अंगोपांग नामक नामकर्म के उदय से शरीर के अंगों की रचना होती है उसे द्रव्यवेद कहते हैं । इसके भी स्त्री, पुरुष और नपुंसक इस तरह तीन भेद हैं। देव, नारकी और भोगभूमिज मनुष्य, तिर्यंच इनके जो द्रव्यवेद होता है वही भाववेद होता है अर्थात् इनके दोनों वेदों में समानता रहती है परन्तु शेष जीवों में समानता और असमानता दोनों होती है अर्थात् द्रव्यवेद For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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