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________________ 62 :: तत्त्वार्थसार वचनयोग के चार नाम वचोयोगो भवेत्सत्यो मृषा सत्यमृषा तथा । तथाऽसत्यमृषा चेति वचोयोगश्चतुर्विधः ॥ 70 ॥ अर्थ - वचनयोग भी सत्य वचन, असत्य वचन, सत्यासत्य - उभय वचन तथा सत्यासत्यरहितअनुभय वचन - ऐसे चार प्रकार के हैं । भावार्थ–सत्यवचनयोग आदि के लक्षण इस प्रकार हैं- सम्यग्ज्ञान के विषयभूत पदार्थ को सत्य कहते हैं, जैसे- जल को जल कहना । मिथ्याज्ञान के विषयभूत पदार्थ को असत्य कहते हैं, जैसेमृगतृष्णा को जल कहना । दोनों के विषयभूत पदार्थ को उभय कहते हैं, जैसे- कमंडलु से घट का काम लिया जा सकता है, इसलिए सत्य है और कमंडलु का आकार घट से भिन्न है इसलिए असत्य है । जो दोनों ही प्रकार के ज्ञान का विषय न हो उसे अनुभय कहते हैं, जैसे- सामान्य रूप से यह प्रतिभास होना कि ‘यह कुछ है'। यहाँ सत्य-असत्य का कुछ भी निर्णय नहीं होता, इसलिए अनुभय है । इन चार प्रकार के वचनों से आत्मा के प्रदेशों में जो हलन चलन होता है वह वचनयोग कहलाता है । काययोग के सात प्रकार औदारिको वैक्रियिकः कायश्चाहारकश्च ते । मिश्राश्च कार्मणश्चैव काययोगोऽपि सप्तधा ॥ 71 ॥ अर्थ - औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, आहारक, आहारकमिश्र और कार्मणशरीर से सात काययोग हैं। औदारिकादि मिश्र तीनों योग उस समय होते हैं जब कि जीव का धारण किया हुआ नवीन शरीर अपूर्ण रहता है। नवीन शरीर पूर्ण होते. औदारिकादि तीनों योग शुद्ध हो जाते हैं । कार्मण शरीर-योग तब होता है जब जीव प्रथम शरीर छोड़कर दूसरे नवीन शरीर के लिए जाता हुआ अन्तराल में रहता है । भावार्थ- - मनुष्य और तिर्यंचों के उत्पत्ति के प्रथम अन्तर्मुहूर्त में औदारिकमिश्र काययोग होता है । उसके बाद जीवनपर्यन्त औदारिक काययोग होता है । देव और नारकियों के उत्पत्ति के प्रथम अन्तर्मुहूर्त में वैक्रियिकमिश्र काययोग होता है। उसके बाद जीवनपर्यन्त वैक्रियिक काययोग होता है। छठे गुणस्थानवर्ती मुनि के आहारक शरीर का पुतला निकलने के पहले आहारकमिश्र काययोग होता है। उसके बाद अन्तर्मुहूर्त तक आहारक काययोग रहता है । विग्रहगति में सभी जीवों के कार्मण काययोग होता है । तेरहवें गुणस्थान में केवलिसमुद्घात के समय दंडभेद में औदारिक काययोग, कपाट में औदारिकमिश्र काययोग और प्रतर तथा लोकपूरण में कार्मण काययोग होता है । तैजस शरीर के निमित्त से आत्मप्रदेशों में परिस्पन्दन नहीं होता, इसलिए तैजसकाययोग नहीं माना गया है। शरीर के पाँच प्रकार Jain Educationa International औदारिको वैक्रियिकः तथाहारक एव च। तैजसः कार्मणश्चैवं सूक्ष्माः सन्ति यथोत्तरम् ॥ 72 ॥ अर्थ — औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस व कार्मण ये सब पाँच प्रकार के शरीर होते हैं । ये एक से दूसरे उत्तरोत्तर सूक्ष्म होते हैं, परन्तु इनमें प्रदेशों की संख्या उत्तरोत्तर अधिक होती है। For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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