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द्वितीय अधिकार :: 63 प्रदेश वृद्धि का गुणकार
असंख्येयगुणौ स्यातामाद्यादन्यौ प्रदेशतः।
यथोत्तरं तथानन्तगुणौ तैजसकार्मणौ ॥ 73॥ अर्थ-औदारिक पहला शरीर है, इससे वैक्रियिक व आहारक ये उत्तरोत्तर असंख्यात गुणे अधिकप्रदेशयुक्त होते हैं। चौथे और पाँचवें तैजस और कार्मण के प्रदेश तीसरे आहारक शरीर से अनन्त-अनन्त गुणे उत्तरोत्तर अधिक रहते हैं। इस प्रकार असंख्यात व अनन्त गुणे उत्तरोत्तर होकर भी इन शरीरों की आकृति या रचना उत्तरोत्तर सूक्ष्म होती है। तैजस एवं कार्मण शरीर का विशेष स्वरूप
उभौ निरुपभोगौ तौ प्रतिघातविवर्जितौ।
सर्वस्यानादिसम्बन्धौ स्यातां तैजसकार्मणौ॥74॥ अर्थ-अन्तिम दोनों तैजस, कार्मण शरीर किसी इन्द्रियविषय के द्वारा होनेवाले उपभोग को नहीं करा सकते हैं; क्योंकि, उक्त दोनों में ही इन्द्रिय रचना नहीं होती। इन दोनों शरीरों का किसी से भी जाते-आते आघात नहीं हो सकता और न ये किसी को रोकते हैं। संसार अवस्था में जीवमात्र में ये पाये जाते हैं तथा अनादि से इनका शाश्वतिक सम्बन्ध है। दूसरे शरीर कभी रहते हैं, कभी नहीं, परन्तु ये दोनों अवश्य रहते हैं। युगपत् अनेक शरीरों की मर्यादा
तौ भवेतां क्वचिच्छुद्धौ क्वचिदौदारिकाधिकौ।
क्वचिद्वैक्रियिकोपेतौ तृतीयाद्ययुतौ क्वचित्॥75॥ अर्थ-विग्रहगतियुक्त जीव में उक्त दो ही शरीर रहते हैं, उस समय अन्य शरीर कोई नहीं रहता। मनुष्य, तिर्यंच की पर्याय धारण करनेवाले जीव में उक्त दोनों शरीर तो रहते ही हैं, परन्तु औदारिक भी प्राप्त हो जाता है। जो देव या नारकी हो जाते हैं उनको वैक्रियिक मिलने से तीन शरीर हो जाते हैं। किसी-किसी तपस्वी को औदारिक तो रहता ही है, तीसरा शरीर आहारक भी उत्पन्न हो जाता है। उस समय तैजस, कार्मण जोड़ने से चार शरीर हो जाते हैं। चार शरीर युगपत् हों तो इसी प्रकार से होते हैं। वैक्रियिक के साथ औदारिक रहकर कभी चार शरीर नहीं होते-यह नियम है। यद्यपि आगे यह बात कहनेवाले हैं कि साधुओं को कभी-कभी वैक्रियिक शरीर तपोबल से प्राप्त हो जाता है, परन्तु वह औदारिक का ही एक प्रकार है।
1. मणुवे ओघो थावरतिरियादावदुगएयवियलिंदी। साहरणिदराउतियं बेगुब्बियछक्क परिहीणो ।।298 ॥ (गो. क. गा.)
। से यह सिद्ध होता है कि वैक्रियिक शरीर-कर्म का उदय मनुष्य गति में हो सकता। वैक्रियिक कर्म जब उदय में नहीं आता तो वास्तविक वैक्रियिक मनुष्यों में कैसे हो सकता है? पृथक्-पृथक् शरीर होने के लिए पृथक्-पृथक् कर्मोदय की आवश्यकता मानी गयी है। साधु के लब्धिप्राप्त शरीर को विक्रिया का साधन होने से वैक्रियिक कहते हैं।
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