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________________ द्वितीय अधिकार :: 61 वायुकायिक जीवों के प्रकार महान् घनस्तनुश्चैव गुञ्जामण्डलिरुत्कलिः। वातश्चेत्यादयो ज्ञेया जीवाः पवनकायिकाः॥ 65॥ अर्थ-महावायु, घनवायु, तनुवायु, गुंजामंडलि, उत्कलि, शुद्ध वायु इत्यादि सभी वायुकायिक जीवों के भेद समझने चाहिए। वनस्पतिकायिक जीवों के प्रकार मूलाग्र-पर्व-कन्दोत्थाः स्कन्ध-बीजरुहास्तथा। सम्मूर्च्छिनश्च हरिताः प्रत्येकानन्तकायिकाः॥ 66॥ ___ अर्थ-मूल से उत्पन्न होनेवाले अदरख, हल्दी आदि, अग्रभाग-पर्व-कन्द से उत्पन्न होनेवाले गुलाब आदि, स्कन्ध या पर्व बीज से उत्पन्न होनेवाले गन्ना आदि, सम्मूर्च्छन जन्मवाले घास आदि तथा प्रत्येक, अनन्तकाय-ये सब वनस्पतिकायिक जीवों के भेद हैं। यह सब इन्द्रियमार्गणा का स्वरूप हुआ। योग (चौथी मार्गणा) का लक्षण सति वीर्यान्तरायस्य क्षयोपशमसम्भवे। योगो ह्यात्मप्रदेशानां परिस्पन्दो निगद्यते॥ 67॥ ___ अर्थ-वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम होने पर जो आत्मप्रदेशों में चंचलता उत्पन्न होती है उसे योग कहते हैं। इस योग की प्रवृत्ति यद्यपि आत्मा में होती है, परन्तु शरीर, मन अथवा वचन के सहारे से होती है, बिना सहारे नहीं होती। योग के पन्द्रह भेद चत्वारो हि मनोयोगा वाग्योगानां चतुष्टयम्। काययोगाश्च सप्तैव योगा: पंचदशोदिताः। 68॥ अर्थ-मनोयोग के चार भेद, वचनयोग के चार भेद तथा काययोग के सात भेद ऐसे सब पन्द्रह प्रकार के योग कहे गये हैं। मनोयोग के चार भेद मनोयोगो भवेत्सत्यो मृषा सत्यमृषा तथा। तथाऽसत्यमृषा चेति मनोयोगश्चतुर्विधः॥ 69॥ अर्थ-सत्य मनोयोग, असत्य मनोयोग, सत्यासत्य-उभय मनोयोग तथा सत्यासत्यरहित-अनुभय मनोयोग, इस प्रकार मनोयोग चार प्रकार के हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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