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( १०६ )
॥ अथ ॥
॥ पंचानुष्ठान चोवीशी प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥
॥ सिद्ध तणी सुख याशिका, अनंत अनंती होय ॥ ते स्तवना हुं केम लहुं, अल्प बुद्धि बे जोय ॥ १ ॥ ब्रह्मसुता तुजने स्तनुं, करो मुज बुद्धि प्रकाश ॥ जेम अनुष्ठान पांच कहुं, पूरो मननी यश ॥ २ ॥ विष गरलादिक अन्योन्या, तद्धित अमृत जेह ॥ त्रण तजे दोय आदरे, सिद्धगति पोहोंचे तेह ॥ ३ ॥ विष गरा अनुष्ठान जे, इह परलोककी आश ॥ अल्प सुखने कारणे, चिहुं गति पूरे वास ॥ ४ ॥ त्रीजुं अन्योन्या हवे कहुं, शून्य करे अनुष्ठान ॥ कोइ जीव जडकपणे, लहे फल पुण्य निदान ॥ ५ ॥ तद्धितने शुभ कारणे, जिन श्राज्ञा क्रिया ध्यान || गुरुसेवाए ते लहे, बेदे कर्म निदान ॥ ६ ॥ सिद्ध द्रव्य रूपी तणुं, रूपातीत धर्मध्यान ॥ ते पण परगुण आशिका, जोय अनंत निदान ॥ ७ ॥ नेद रूप ध्यातां थकां स्वद्रव्य निरखे जोय ॥ शुक्ल ध्याननुं तो रहे, तद्धिते एम होय ॥ ८ ॥ संतपदादि प्ररूपणा, लहे द्रव्य गुण पव
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