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________________ (१०७) रूप ॥ नय निक्षेप प्रमाण करी, नावे आत्मस्वरूप ॥ ए ॥ निज पर्यायमें चित्त रहे, न लहे पर्यायरूप ॥ पुण्यानुबंधी करे क्रिया, श्ह तछित स्वरूप ॥ १० ॥ हवे अमृत अनुष्ठानको, आवे आत्म स्खन्नाव ॥ हुँ करता ते नविग्रहे, नावे उदासीन नाव ॥११॥ उदयागत सवि खेपवे, रातो न तातो होय ॥ योग शुजाशुन उपजे, खेद राग नहीं कोय ॥ १२ ॥ जेहने अंत क्रिया होये, ते आत्मामृत जाण ॥ समान अशुन दोय तस गति, टली निश्चय लहे निर्वाण ॥ १३ ॥ अमृत खनाव सुख आशिका, सप्त धात कीयो नेद ॥ श्वेत मांस लोही हुआं, श्ह जिनपदको खेल ॥ १४ ॥ अनंतानुबंधी पूरे रह्यो, खेले पुजल खेल ॥ पूर्व नावना बंधथी, पण न मले चित्तको मेल ॥१५॥आह्लाद ने सुख आशिका, वांबा पड़ाव खेद ॥ अशुद्ध अव्य गुण पळवा, तेणे अनादि तुज टेव ॥ १६ ॥ जब संजलणमां जिके, कर्म रह्यां जव जाणी ॥ तव ते जिनादि संजम लहे, अमृतयोग अनुष्ठान ॥ १७ ॥ खाव्य गुण पजावा, जेह खनाव निज राख ॥ परजव्य अशुद्ध पजावा, तेह विनाव तुज नाख ॥ २७ ॥ नावअनु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003691
Book TitleVastupal Tejpal no Ras
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1920
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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