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(१४२) ॥जी॥ धूंघट खोख्या घाट, विच विच गुरु मुख जो वती॥जी॥6॥जी॥ देशना अमृतधार, सां जली श्रोता रस लीये ।। जी ॥जी० ॥ नय गम नं गनी जाल, स्यादवाद रचना करे ।। जीणा जी० विधि पदगष्ठ शिरताज, रत्नसागर सूरीश्वरु ॥जी॥ जी ॥ तस पाटें पूरींद, विवेक सागर तेजें तपे ॥ जी० ॥ १० ॥ इति ॥ १२॥
॥अथ गहूली एकशो ने त्रेवीशमी॥ ॥नदी यमुनाके तीर, उडे दोय पंखीयां॥ ए देशी॥ ॥ चंपानयरी उद्यानमां, गणधर आवीया।। नामे सो हम स्वामी, नविकमन नाविया॥ विषय प्रमाद कषा य, हास्यादिक तजी ॥ रमता आतमराम के, निजप रिणति नजी॥१॥नीरागी जगवान् , करे गुणदेश ना॥ उपकारी असमान के, तारे जविजना॥सुणवा जिनवर वाणि, तिहां आव्या सहु॥ नर नारीना थो क के, हर्ष मने बहु ॥२॥ वसन आजूषण व्रत, तणा अंगे धरे ॥ कोणिकनूपति नार, हवे गहूली करे ॥ समिति गुप्ति सहियरने, साथे श्रावती॥आत्म असं ख्य प्रदेश, रकेबी लावती ॥३॥ श्रका कुंकुम घोली, स्तिक करे जावथी॥श्रातम पीउने उपर, जिनगुण
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