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(१०)
॥ चंद्रवदनी मृगलोयणी, एतो सजि शोले शणगार रे । एतो यावी जगगुरु वांदवा, धरी हैडे हर्ष पार रे || || १ || एतो मुक्ताफल मूठी जरी, रचे गहूंली परम उदार रे ॥ जिहां वाणी जोजन गामिनी, घन वरसे खंति धार रे ॥ २ ॥ हांरे जिहां रजत क नक रत्नना, सुररचित ऋण प्रकार रे ।। तस मध्य म णि सिंहासनें, शोजित श्रीजगदाधार रे ॥ ३ ॥ जि हां नरपति खगपति लसपति, सुरपति युत पर्षदा बार रे || लब्धिनिधान गुण आगरु, जिहां गौतमादि गणधार रे ॥ ४ ॥ जिहां जीवादिक नव तत्त्वना, षट् द्रव्यभेद विस्तार रे ॥ ए तो श्रवण सुणि निर्मल करे, निज बोध बीज सुखकार रे ॥ ५ ॥ जिहां त्रण
त्रिभुवन उदित, सुर ढालत चामर चार रे ॥ स खि चिदानंदकी बंदना, तस होजो वारंवार रे ॥६॥ || ॥ अथ श्री गहूंली त्रीजी ॥
| घरे यावोजी थांबो मोरीयो । ए देशी ॥ ॥ महावीरजी यावी समोसख्या, राजगृही नयरी उ यान || समवसरण देवें रच्युं, तिहां बेठा श्रीवर्द्धमान ॥ माहा० ॥ १ ॥ वनपालके आपी वधामणी, दरख्यो श्रेणिक भूपाल || गौतम आदि गणधरु, साधवी
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