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________________ ( १२० ) कलह किये तलाव, पाज किय लंककी; 1 ( परिहां ) दैव पास नहीं चले, कल बनाये वस्त्र, शस्त्र कीने घने; कल बनाये गेह, बडे सब जो बने; कल बनाये धातु, सबदि व्यवहार है; ( परिहां ) दैव विना यह अकलशुं, सर्व असार है. ॥ अथ गुण विषे दोहा ॥ २ वडे वंश तातें वडे, वमी लाज घट माहि; घर सरवरकों सजरम, लहतज श्रादर न्याइ. १ हर कर हरमुख हर हृदय, हरि घर अंग विराज; समुद्र तजि लागे सही, जो गुणनें उदेराज. गुण वि कोउ नां चहै, गुणतें श्रादर होत; ज्यूं गुण विना कमान सो, चाहत नहि को जोत. ३ गुन बिन मनुष्य क्या करै, भूख मरे लहि दुःख; गुन वालो घोडे च, पावै बहुहि सुख. लक्ष्मी सो जावै चली, गुण नहि जात पलाय; जीवत सुखकों देत है, मुवे कीर्त्ति श्रादाय. गुण सो ऐसो लीजियें, जायें है निर्वाह; प्रदेशमें बंधव हुवै, मान देत नर नाह. गुन विन पशुवत आदमी, खात फिरत जगमांहि; Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org कल इस रंककी 9 ४ Ա
SR No.003687
Book TitleStavanavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages162
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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