SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ११ ) कल मिलावें राज, सबै जग जानही; ( प रिहां ) कल दैव श्राधीन, नहीं इनसानहीं. २ अकलवान परदेश, जाइ सुख पावहीं; कलवान के गेह, सकल चलि घ्यावहीं; अकलवानकूं सर्व, देत यति मान है; ( प रिहां ) कलवानकूं दैव, करत बहुमान है. ३ अकलहींतें नये ग्रंथ, अकल मंदिर बंधे; कल हितें किये जहाज, अकल देशहि संधे; अकल चलाये धर्म, अकल मर्महि दियो; (परिह) कल देव ढिग रांक, कतु नहि चालियो. ४ अकल विना पशुतुल्य, कहावे आदमी; अकल विना नर जान, नहीं पीडा समी; कल विना नहि रोग, वैद्य मिटावे है; ( परिदां ) कल दैवको दान, जुं सैद होवे है. ५ कल हितें सब होत, जगत्मे काज है. कल हितें सब होत, स्थापना राज है; कल हितें सब होत परम पावन सही; ( प रिहां ) दैव विना कबु प्रकल, हुको चालत नहीं. ६ अकल बतावन छाकल, अकलतें गुरु दुवै; अकल हितें गत विकल, अकलतें नै कुवे; Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003687
Book TitleStavanavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages162
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy