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________________ (१९०) लघुता पावे सोश ज्यु, कृष्ण पद शशि रात. २ कष्ट मूर्खपन जानियें, कष्ट तरुण धनहीन; कष्टहितें सो कष्ट जो, पर घर वासहि कीन. पराधीनता जीवकू, जीवित मरण निदान; तातें सो नदि कीजियें, जो व्है पुःख महान. ४ सुख दुःख है प्रारब्धवश, कहा होय पर श्राश; कर्म विख्यो सो नां मिटे , कहा होय बनि दास. ५ दास ताहिको होश्यें, जो व्है पर उपकारि; ऐसो ईश्वर एक अरु, सजन विरलो धारि. ६ पर श्राश्रय असि धार है, चूकत काटत पाय; जय श्रधिको सुख है तनक, सो न कीजियें नाय. परकी श्राश निराश है, कबहू पूरे नांहि; श्राश कीजियें शकी, सब सुख हे ता मांहि. ७ ॥अथ अक्कल विषे श्ररिक्ष बंद ॥ अकलवान नर होय, नही नूखे मरे; अकलवान नर होय, काज ताको सरे, अकलवान नर होय, सदा ते सुख लहै; (परिहां ) अकलवान नर होय, दैवतें सुख सहै. १ अकल सकलतें अधिक, मान अति देत है; नूप करत है मंत्रि, सव्हा तिहिं लेत है; Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003687
Book TitleStavanavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages162
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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