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________________ (११७) तप नावनो रे, सरस रच्यो संवाद ॥ जणतां गुणतां जावणुं रे, शछि समृद्धि सुप्रसादो रे ॥धर्म ॥ ए॥ इति श्री दान शियल तप नावनुं चोढालियुं संपूर्ण ॥ ॥ अथ श्रीशीतल जिन स्तवन।मोशालानी देशी॥ ॥शीतल जिन सहेजानंदी, थयो मोहनी कर्मनिक दि, परजायिक बुद्धि निवारी, परिणामिसें नाव समा री॥मनोहर मित्र ए प्रनु सेवो॥१॥वर केवलनाण वि लासी, अगनान तिमिर जयनाशी ॥ थयो लोकालोक प्रकाशी, गुणपर्यव वस्तु विलासी ॥ म ॥२॥ अद य स्थिति अव्याबाध, दानादिक लब्धि अगाध ॥ जे शाश्वता सुखनो स्वामी, जम इंघिय लोग विरामी॥ म० ॥३॥ जे देवनो देव कहावे, जोगीश्वर जेहने ध्यावे॥ जसु ाणा सुरतरु वेली, मुनिहृदय श्रारामें वेली ॥ म ॥ ४ ॥ जेहनी शीतलता संगें, सुख प्र गटे अंगोअंगे, क्रोधादिक ताप शमावे, जिनविजय आणंद सनावे ॥ म ॥५॥ इति ॥ ॥अथ पराधीनता विषे ॥ दोहा ॥ पर आश्रय सो कष्ट है, अरु लखु करी विश्वास; शिर धास्यो शशि शंजुनें, तौहू कृशता तास. १ बिन कारनहि मूढ जन, परके घरकू जात; Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003687
Book TitleStavanavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages162
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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