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(ए१) कर ॥ सखि सुख संपत् आंगन में, आज चल आश् ॥ आ ॥ दे ॥॥ अब इण अवसरमें सुरत, श्यामकी लागी॥ श्या० ॥ पशुअनकी सुनी पोकार, दया दिल जागी ॥ जिन लही परवतकी वाट, तृष्णा कुं त्यागी ॥ तृष्णा ॥ शिवरमणीके शिरबिंद, बन्यो वैरागी ॥अब महेल चढी राजुलकुं, खमी बटका॥ खमी० ॥ दे॥३॥ अब रेतीके सरवरमें, टिके न ही पानी ॥ टिके ॥ जिन गुण गाया नहीं जाय, अलप जिंदगानी॥अब कठिण जीव फुरगतिको बन्यो में दानी ॥ ब० ॥ जिनदास करो नव पार, दया दि ल आनी ॥ अब सरण सतीके बेठ, लावनी गा॥ लाव ॥ दे० ॥४॥ ॥१०॥
॥श्री आदिनाथनी लावणी ॥ ॥श्री आदिनाथ निर्वाणी, नमुं एसें ध्यानी ॥ नमुंग ॥ जव जीव तरनके काज, बनाई बानी ॥ तु म नाजिराय कुलधारी, बमे अवतारी॥ बडे० ॥ खुल रही खलकमें खूब, केसरकी क्यारी ॥ तुम मम ता मनकी मारी, आतमा तारी ॥ आत ॥ तज दीनी प्रीत विषयनकी, जान कर खारी॥ तुम खरी मुगति पटराणी, जगत्में जानी ॥ जग० ॥ नव० ॥
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