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( ५५ )
छ समजे विचार || पातुं तेमहीज तुम्हे करो, तो शुं अंतरचार ॥ ५॥
ढारमी ॥
॥ ढाल हांजी बारा बजारमां, हांजी मुने जेहरु दे ब लाय, तोरे संग चालुं रे, लालमल जोगीया ॥ ए देशी ॥ हांजी हूं निर्मागिणी मानवी, हांजी तमें बो गिरुया साध, तोरी बलिहारी रे मुनिवर माहरा ॥ दांजी तुमने में कीधी यशातना, हांजी खमजो ते निराबाध ॥ तो० ॥ १ ॥ हांजी तुमे बो करुणा सायरु, हांजी कहुं हुं गोद बिछाय, ॥ तो० ॥ हांजी शाप न दीजें मुकने, हांजी मुऊथी केम सहाय ॥ तो० ॥ २ ॥ शत्रु प्रत्ये कोपे नहिं, हांजी बांधवथी न मुजाय ॥ हांजी शाप न दे तनु पीडतां, हांजी मुनिवर तेह कहाय ॥ तो० ॥ ३ ॥ हांजी चंदनने जो पीडीयें, तो दीये सामी सुवास ॥ तो० ॥ हांजी यंत्र में पीलीयें शेलडी, हांजी तो पण द्ये रस खास ॥ तो० ॥ ४ ॥ हांजी रंजा खंज जो बेदीयें, हांजी तो पण फल दे नूरि ॥ तो० ॥ ए गीरुधाइ साधुनी दांजी शास्त्रमें कही ससनूर ॥ तो० ॥ ५ ॥ हांजी लागे नहीं नाखी थकी, सूरज साहामी खेह ॥ तो०
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