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(३)
जोय दश कला विस्तार ॥ निषध नीघ्र सोसहस इगसत्त, दोय कला ए गिरि पमत्त ॥ ५ ॥ सत्त पित्त पट कुल गिरि दाख, मेलंतां होय जोयण एक लाख ॥ जिनवर वचनें करी यें प्रमाण, तेहथी को नहिं अधि को जाए ॥ ६ ॥ दवे जर हैजन पद वैदर्ज, मनुज लो क शोजानो गर्न ॥ वन उपवनने गहन विशेष, तर णि किरण करी न शके प्रवेश ॥ ७ ॥ अति उत्तंग शिखर गिरि तणां, खडदडें वदेतां रह रविता || करे तसमांनुं निकरणां जलेख, मानुं गंगाधर प्रक ट्यो अनेक ॥ ८ ॥ अवनी वनिता जाल समान, रति रमणीयक देश प्रधान ॥ नगरी वर्धमाना द्युतिदरी, अलकानी शोजा रहि परी ॥ ए ॥ शंकाये लंका बा पडी, मूकी सुरनगरी त्रापडी ॥ सासय नगरीयें वं दिका, नू जामिनी कुंकुम बिंदिका ॥ १० ॥ मंदिर सुंदर गढ मढ पोल, सोहे विजय ती तिहां जैल ॥ वर्णदार वसे गुणवंत, निज निज धर्म सदा निष हंत ॥ ११ ॥ श्रति हि कृपण महिसुर तिस्या, बिल्लर तो क्षीरोदधि जिस्यां ॥ कडू वाणी साकर जिसी, ते हनी उपमा दीजे कीसी ॥ १२ ॥ एहवा मूढ रहे गह गही, अवगुण को शीख्या नहीं | हृदय कठोर
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