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(४) थालंबन लहे बहु, पामे पामे हो नव नवला जोग ॥ जं० ॥ १० ॥ कंटक कंटक तरु रह्या, दो जीहा हो विषहर कहेवाय ॥ खल दाखीजे खेतमां, मंमदीजे हो सुर मंदिर गय ॥ ज०॥ ११॥ करछेदन नृप जे ग्रहे, तिम कुसुमे हो बंधन उपचार ॥ कुटिल पणो केसे ग्व्यो, नव दीसे हो कोश लोक मजार ॥ जंग। ॥ १५ ॥ निर्मल सरवर जल नरयां, के दर्पण हो दि सिनां मनुहार ॥ जोगी नमर जीले घणा, घण महके हो कमलोनो सार ॥ जं॥१३॥ वनवामी आरामनी, बबि नीली हो अमती चिहुंउर । स्वर्गपुरी जीतण न णी, कसी नीड्यो हो बखतर हठ जोर ॥ जं॥१४ ॥ अतुलबली बली नृप समो, रिपुमृगने हो त्रासन जे सहि ॥ दाता ताता साहसी, न्याये धोरी हो गुण वंत अबीह ॥ जं ॥ १५ ॥ सबल प्रतापें तापव्या, रिपु वसीया हो सीतल गिरि कुंज ॥ वनफल नखी निजर पीयें, मुनिवृत्तें हो जीवे उःख पूंज ॥ जंग । ॥ १६ ॥ लखमी करकमले वसी, मुख एहने हो स रसती विलसंत ॥ विण आदर रहवो किशो, जस कीरति हो गश् कोपी दिगंत ॥ जं० १७ ॥ हेलें धनुष नमामतां, शिर नमिया हो अरिनां तत
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