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(३.)
संपद भूमिका, ते साधे दो चक्री बोगाल ॥ जं० ॥ २ ॥ दक्षण जाग चंद्रावती, नगरी तिढ़ां दो बाजे निकलं क ॥ अलकापुरि उपर गई, लंकावली हो सायर जस संक ॥ जं० ॥ ३ ॥ विस्तर चटा चिहुं दिसें, चोरा सी हो चावा जिहां खास ॥ सायर तजी जल डूष थें, जाणे लखमी हो तिहां कीधो निवास ॥ जं० ॥ ॥ ४ ॥ फटिक रतनमय सौधनी, रुचि उल हो प सरेराम ॥ त्र्यंधारें पख पण नहीं, तिणे रहेवा दो क्षण तिमिरनो ठाम ॥ जं० ॥ ५ ॥ किहां कर्णे घर चंद्रकांतनां, परिबिंबे हो तिहां चंद्र मरीच ॥ श्र स्खल जल परनालना, वरसालो हो परगट करे सी च ॥ जं० ॥ ६ ॥ गयणंगतल पूरती, अटारी हो उंची कैलाश ॥ गोखें ग्रोखें रहे गोरमी, जाणे अपवर हो करे रंग विलास ॥ जं० ॥ ७ ॥ मरकत विद्रुम कांचने, के रचिया हो मंदरना जाल ॥ दिसिदिसि तेज जलामजे, होये दिन दिन हो सुर धनुष अकाल ॥ ॥ जं० ॥ ८ ॥ कुंकुम मृगमद वासीया, जलपूरें हो दगगें प्रनाल || जमर जमे रसीया परें, रस लंपट हो करता ढक चाल ॥ जं० ॥ ए ॥ गढ़विंटी चिह्न दसि पुरी, परिपूरी हो सुखी एसविलोग ॥ डुखिया
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