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लिका रे दांजी, वाधे दिनदिन वधते नेह ॥ ए० ॥ २१ ए० ॥ २० ॥ स० ॥ सर्वगाथा ॥ २४२ ॥ ॥ चोपाइ ॥ खंगखं रस बे नवनवा, सुणतां मीठा साकर लवा || निर्मल मलयचरित्र जग जयो, प्रथम खंग संपूर्ण थयो ॥ १ ॥
॥ इति श्री ज्ञानरत्नोपाख्यानापरनाम निमलय सुंद रिचरित्रे पंमितकांति विजयग शिविरचिते प्राकृतप्रबंधे मलयसुंदरी प्रशवनो नाम प्रथमः खंगः संपूर्णः ॥ १ ॥
॥ अथ द्वितीय खंड प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥
॥ स्वस्तिश्री गुरु जिन गिरा, गणधरने करजोकि ॥ बीजो खंग कहुं हवे, छालश निद्रा बोमि ॥ १ ॥ धुर मीठी जो होय कथा, कथक वचन निर्दोष | मीठी सजा सुणे वली, तो होये रसनो पोष ॥ २ ॥ फोकट फोरवे चातुरी, विचमा करे बकोर ॥ रस गंज विकथा करे, माणस नहीं ते ढोर ॥ ३ ॥ तेहजणी मन थिर करो, मूकी अलग धंध ॥ कहेतां श्रोता सांजलो, सरस कथा संबंध ॥ ४ ॥ लदी हवे कुमरी शुभग, यौवन पूर अनंग ॥ का काम समझना, उगमें विविध तरंग ॥॥॥।
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