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(५४) थइ रातमीजी ॥ ॥ राणी कहे वाणी हे, प्रीतम प ण जाणो को तेह ॥दाहिण मुज फुरक्यो जे नयण, सचक अशन निमित्तनोजी ॥ ए॥नमी वन वामी हे, आवी फरी मंदिर मांदे ॥ दासी गश् सेवा पाम, वेगवती चंचल तनुजी ॥१०॥ निशानर तेणे हे, सूती जव सेज हुं थाय॥पुष्ट कोश्यायो पास, तुरत उपानी लेई गयोजी ॥ ११॥ सूंने गिरि ढूंके हे, मूकी मुज नागे धीठ ॥ जयें घण थर कित गात, सकल दि श जोडं सुं थयोजी ॥ १५ ॥ दीसे नहीको हे, पा बल मुख आगल पास ॥ सुएयु कोश् विषम आकं द, विरुया वनचरना घणाजी ॥ १३ ॥ वाघ सिंह धड़के हे, सबल दीये चित्ता फाल॥रमे रीड देतां दो ट, किहां कणे मग करेखेलणाजी ॥ १४ ॥ जाऊं कि ण श्रागें हे, सुणे कोण पुःखनी वात ॥ चिंता चयसुं लगी चित्त, क्षणएक पुःख पूरें नरीजी॥ १५॥ सा इस धरी साचो हे, चाली दिशि एक निहाल ॥किहां पिन किहां वन केणि, वैरी अकारण अपहरिजी॥१६॥ चढी गिरि टंके हे. कनिज बातम घात॥चित चिं ती एह, त्यांहिं, चाली सम थमते पगेंजी॥ १७ ॥ दीगे तस सिंगे हे, वारू एक नवल प्रासाद ॥ उंचो
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