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( ३०८ )
खय खजाना तेरा अमोल ॥ ज्ञा० ॥ मैत्री मैरे सब सौं होय, जीउ सकलसौं बैर न कोय ॥ ज्ञा० ॥ ७ ॥ आप खमाजं दोषरती, मोसौं खमहो सिगरे जीउ ॥ ज्ञा० ॥ असे धरे मुनि निर्मल ध्यान, रूपकावली कै चढी सोपान ॥ ज्ञा० ॥ ८ ॥ घाति करमकौं प्रजारे निदान, उपज्यो तबदी केवलज्ञान ॥ ज्ञा० ॥ शुक्ल ध्यानानलको प्रयोग, अंतर बाहिर अगनि संयोग ॥ ॥ ज्ञा० ॥ ए ॥ तिनसौं जब उपग्राही कर्म्म, जस्म करें । बनु मैं तजी जर्म ॥ ज्ञा० ॥ अंतगम केवली व्हे के साध, पायो मुगतिपद जयो दे अबाध ॥ ज्ञा० ॥ ॥ १० ॥ जनम जरा मृतके दुःख टार, जवकौं जलां जलि दै निरधार ॥ ज्ञा० ॥ चोथे खंकें राग बंगाल, चौतीसमी पूरी जइ ढाल ॥ ज्ञा० ॥ कांति विजय कहे देख हुं खेल, समतासौं जयो कर्म उखेल ॥ ज्ञा० ॥ ११ ॥ ॥ दोहा ॥
॥ ज्वलित प्राय हुताशनें, हुई जिव्हारें तेथ ॥ नाठी कनका पापिणी, बीहिती केथ अनेथ ॥ १ ॥ यो पुष्टता नारिनी, विधि विरची विष सींची ॥ मा रेलवें परनें, तस रस सरवस खींचि ॥ २ ॥ म ति जेहनी पग हेग्ले, दाबी रहे सदाय ॥ अनरथ
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