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________________ ( ३०५ ) करतां तेहनें, वासें कुण समजाय ॥ ३ ॥ एक साधु हणतां हुवे, जीव अनंत विनाश || जांख्यो आगम मां इस्यो, तिछंकरें प्रकाश ॥ ४ ॥ भृष्ट हुई शुभ क मेथी, पुष्ट पाप रस लीन ॥ कष्ट सदेशे नवनवां, छा ष्ट कर्मवेश दीन ॥ ५॥ ॥ ढाल पांत्री शमी ॥ विनता विइसी रे वीनवे ॥ ए देशी ॥ ॥ यणि विहाणी प्रह थयो, दिायर कीध प्रकाशो रे ॥ बहु परिवारें परिवस्यो, अवनीपति सविलासो रे ॥ १ ॥ यावे मुनिनें रे वांदवा, शतबल जक्ति विलु को रे ॥ जनक वदन जोवा जणी, उत्कंठित मन सू धो रे ॥ ० ॥ २ ॥ अति उत्सव आबरें, काननमा जव आयो रे || निरखे तेहवे रे साधुनो, देह जस्म मय गयो रे ॥ ० ॥ ३ ॥ असमंजस जोयाथकी, महीपति दुःखमांहें न कियो रे ॥ नक्तें प्रीतें रे जोल व्यो, धसके धरा तल पकियो रे ॥ श्र० ॥ ४ ॥ मोहें जास्यो रे राजवी, मूर्च्छाणो मन ऊणो रे । सजग हुने उ पचारथी, पामे तव दुःख ठूलो रे ॥ श्र० ॥ ५ ॥ प रिकर दुःखियो रे नृपडुःखें, रोवे विलवे अनेको रे, शोकनृपतिनें रे सुयें, करता पट अनिषेको रे ॥ ॥ ० ॥ ६ ॥ भूपति पजणे रे पापीये, किले ए की Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003682
Book TitleMahabal Malayasundarino Ras
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1907
Total Pages324
LanguageGujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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