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( ३००) जो सुत महबल तणो रेहां, हु सहसबल नाम ॥ सा० ॥ वर लदण गुण सायरू रेहां, वंश वधारण मान ॥ सा० ॥३॥ एक दिने रयणी समे रेहां, मह बल मलया नारि ॥सा० ॥ श्लोक पुरातन चित्त धरे रेहां, अन्वय अर्थ विचार ॥ सा ॥४॥विधिपदनी वक्तव्यता रेहां, नांखी अदृष्ट सरूप ॥ सा०॥ धर्मा धर्म पदार्थनो रेहां, कथकदृष्ट अनूप ॥ सा॥५॥ स्वर्ग मुक्ति गति साधना रेहां, हेतु प्रथमपद वाच्य ॥ सा० ॥ नरकादिक गति कर्षणे रेहां, बीजो हेतु अवा च्य ॥ सा ॥ ६॥ कारण जुगपदनो कह्यो रेहां, एकज पद पर्याय ॥ सा०॥ नावि प्रमुख अनेक ने रेहां, ते हना वाचक प्राय ॥सा० ॥७॥परिपाको रस ते दीये रेहां, चिंतित होये अकयब ॥ सा ॥ शुन्न अशुजा दिक नावथी रेहां, ये परिणत फल सब॥सा०॥७॥ अवश्यपणाथी तेहनी रेहां, शक्ति कही बलवंत ॥ सा० ॥ पूरवपद विचारतो रेहां, हुश् निज वश तेह तंत ॥ सा०॥ ए ॥ विषय कषाय वशे पड्या रेहां, ते न लहे तस व्यक्ति ॥सा०॥ न्यायें अशुज विनावनी रेहां, चाखे रस परिपक्ति॥ सा०॥ १०॥ जाणो न वेखे आपथी रेहां, सहज प्रत्ये परतीर ॥ सा०॥ अ
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