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(२५) ॥ ढाल गणत्रीशमी ॥ आसणरा योगी ॥ ए देशी॥ ___॥ प्रियसुंदरी मुनिवरनें देखी, आप कुलवट कां णि उवेखी रे ॥ हुई साधुनी द्वेषी ॥ बंधु वियोग ह जो नित्य ताहरे, तुंतो दीसे राक्षस जाहरे रे॥ हु०॥ ॥१॥ रूपें तुं दीसे जयकारी, प्राण जूतनें दे पुःख जारी रे ॥ हु० ॥ तुज मुख जोतां पुण्य पणासे, म ल मलीन वपुष तुज वासें रे ॥ हु ॥ ॥ श्म क हीने पाषाण प्रहारें, हण्यो मुनिवरनें त्रण वारें रे ॥ ॥ हु०॥ महबल पण तिहां मौन करीने, अनुमोदे दृष्टि धरीने रे ॥ हु० ॥३॥ बेदु जणे महापातक बांध्यु, जीषण नव बंधन सांध्यु रे ॥ हु ॥ पड़ता वो करतां वली पावें, बहु खेपव्युं समजी था रे ॥ हु०॥४॥ खपवतां दल ऊगस्या जेहवं, शहां फ ल लद्यु तेथी तेहवु रे ॥ हु०॥ त्रिहुँ वारे लह्या वधु वियोगो, न मटे पूरवकृत लोगो रे॥ हु० ॥५॥ कनकाथी लाधो अंतिवको, एणी रात्रिचरनो (राद सीनो ) कलंको रे ॥ हु०॥ वंक विना मूकी वन सी में, रखमी गिरि गहन तटीमें रे ॥ हुण् ॥ ६॥ देश विदेश सह्यां पुःख केतां, पार थावे न कहे तेतां रे ॥ हु० ॥ बिहुँ जण कर्म तणे अनुसारें, सह्यां संक
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