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(२३७) पेठो हुँ चयमां थर गनें, छार सुरंग उघामी ॥ सबल सुरंग शिला तस छारें, दीधी पानी अामी॥०॥१॥ सुनटें चय सलगामी मूकी, बली बली थइ टाढी॥ छार उघामी कुशले श्राव्यो, बार नृपति शिर चाढी ॥ ज० ॥२०॥ सुंदरी गुह्य कथा ए माहरी, कोश आगे मत नांखे ॥ पुष्ट नृपति मुज बिउ विलोके, तुज लेवा अनिलाखे ।। ऊ० ॥१॥ चोथे खंमें थश छादशमी, ढाल सुधारस मीठी ॥ कांति कहे धणनी पिउ संगें, विरह व्यथा सवि नीठी ॥ ज० ॥ २२ ॥
॥ दोहा ॥ ॥श्राव्यो नरपति तेहवे, कहे सिझनें जंत ॥ नोजन द्यो मलया जणी, अम हाथे न करत॥१॥ तरुणी तुरत जमामीनें, कहे सिक सुण राय॥की, कारज ताहरूं, हवे अम दीयो विदाय ॥२॥आपो मुज धण आदरें, थापो बोल प्रमाण || निरखे जीवा सामुहो, वचन सु णी महेराण ॥३॥ संकधी जगव्यो वली, मंत्री बल नुं धाम॥अहो सिद्ध साध्युं सबल, नूपतिनुं ए काम ॥४॥ उपकारी शिर सेहरो, महा सत्त्ववर सिंधु ॥ बीजुं पण महीपति तणुं, कर एक कारज बंधु ॥५॥
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