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(२३७) टली आपे नृपनें, कहेतो एहबुरंगें ॥ ए नाखो निज माथे एहथी, रहेजो निरुया अंगें ॥ ॐ ॥ १० ।। नूप नणे शुं न बच्या चयमां, आव्या दीसो साजा ॥ आग सगी नहीं जगमा केहनें, न गणे सतियां आजा ॥ ज० ॥ ११॥ कुमर विमासे कूमा आगें, बनशे कू हुँ बोट्युं॥कहे नृपनें हुं दाधो चयमां, मन साहस नवि मोट्युं ॥ ऊ || १२ ॥ मुज साहसथी सुरगण रीज्या, अमृत रसें चय गरे ॥थयो सजी चित्त फरी हुँ तेहथी, भावी रह्यो चय आरें ॥ ज०॥ १३॥ र पोटली तिहांथी लेश, आव्यो राज समी॥ वाचा तेह पले तो रूमी, बोली जेह मही॥॥१४॥ नूप विचारे धूरत एणे, मीट सकलनी वंची॥॥हां र ह्यो गली चय बाली, सुनटें करी ग उंची। ऊ०॥ ॥२५॥कांत समागम जाणं मलया, मलवाने घसी आवी ॥ आरक्षक परिवारे वींटी, निरखत हरख न मावी ॥ ज० ॥ १६ ॥ एकांतें जश् पूजे पतिने, पा वक पंग स्वाम। ॥ कुशल कम मख्या ते लाखो, पा यु कहे अवसर पामी ॥ ज० ॥ १७ ॥ अंध कूप गत जेह सुरंगा, ते मुख में चय खमकी॥ पृथुल गर्न घ रने आकारें, हार शिलायें अम्की । ऊ ॥ १७ ॥
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