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________________ ( २३६ ) सुर तायें कटकण लागा काठ ॥ चमाकें चमकी बे बाला ॥ ए की ॥ धोरणी धूम तणी त्यां प्रसरी, दिशि दिशि अंबर बायो ॥ श्यामघटा करी पावक रूपें, जाणे पावस यायो । ऊ० ॥ २ ॥ वन्हि पतंग उमे तगतगता, खजुच्या जिम चिहुं घोरें ॥ जाल वीज ज्यं चिलकण लागा, अनल जलदनें जोरें ॥ ज० ॥ ३ ॥ सात जीन शतजीज थईनें, नजतल चाटण लागो ॥ तस उद्दीपक पचनसहायी, विशमो थई त्यां वागो ॥ ऊ० ॥ ४ ॥ धीरपणुं पुर लोक प्रशंसे, तस हा व ण सुणतां ॥ ज्वलत रह्यो विश्वानल देखी, सुनट वल्या गुण थुणता ॥ ज० ॥ ५ ॥ जिम की धुं तेणें तिम नृप आगे, जांख्यं सकल बनावी ॥ नूप प्रधान विना पुरजननें, ते निशि निंद न घ्यावी ॥ ज० ॥ ॥ ६ ॥ दुई प्रजात विजा तनु तारा, ढांक्या सूर प्रजा वें ॥ तव शिर रक्षा पोटि धरीनें, वे सिद्ध स्वजा वें ॥ ज० ॥ ७ ॥ देखी विस्मित लोक उमंगें, पग प ग हवं पूढे ॥ अहो सुगुण तुं आव्यो किहांथी, शि शें एह की स्युं बे ॥ ज० ॥ ८ ॥ ते चयनी रक्षा ले हूं, आव्यो बुं नृप काजें ॥ इम कहेतो पोहोतो नृप जवनें, सिद्ध पुरुष शुभ साजें ॥ ॐ० ॥ एए ॥ राख पो For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Educationa International
SR No.003682
Book TitleMahabal Malayasundarino Ras
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1907
Total Pages324
LanguageGujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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