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( २३१ )
तणी, जूने मूंदी धात || ढुं० ॥ ७ ॥ पूढे नरपति सिद्धनें, लोयल कलुषाय ॥ कहे रे ताहरे एहसुं, श्यो सगपण थाय ॥ हुं० ॥ ८ ॥ सिद्ध कहे धण माहरी, पामी मुक विजोग || दैवदयाथी माहरो, लही आ ज संयोग || हुं० ॥ ए ॥ यवनीपति धाखे वली, क र एक मुज काम ॥ ढील नहीं देतां पढ़ें, तुजनें एड् चाम ॥ हुं० ॥ १० ॥ दुःखे शिर नित्य माहरू, तेहनो एह उपाय || लक्ष्णधर तुज सारिखो, नर यावे च लाय ॥ हुं ॥ ११ ॥ चयमां बाली तेहनुं, कीजें ज स्मशरीर ॥ लेपें शिर पीमा ढरे, तेह जस्म सनीर ॥ ॥ हुं० ॥ १२ ॥ बध ए तुजनें जलें, करवुं माहरे काज ॥ सौंप्युं दुष्कर काम ए, मारण नरराज ॥ हुं० ॥ || १३ || लुब्ध्यो मलया देखीनें, निर्लज ए नरराज ॥ मुजनें दवा कारणे, सोपें एहवुं काज ॥ हुं० ॥ ॥ १४ ॥ धमें मुजनें सूचव्युं, पहेलुं पण ए६ ॥ करशुं जो मृत्यु यागमी, तो पण देशे बेह ॥ हुं० ॥ १५ ॥ मरण विना कुंण करी शके, दुःख संजव काज ॥ श्रं गीकस्युं में घुरथकी, न कस्या मुज लाज ॥ हुं ॥ १६ ॥ एम धारी साहस ग्रही, वोल्यो त्यां नर सिद्ध ॥ चिं ता न करो राजिया, कारज ए में लीध ॥ हुं० ॥ १७ ॥
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