________________
(२१) ल्यो नहिं जगवान ॥३॥इंशाणी सुरपति परें, रति रतिपति उपमान ॥ शोने अनुपम जोमj, अनुगुण रूप समान ॥४॥ अनय हजो तुमनें बिन्हें, आवो कूपक कंठ ॥ दाँधल कंदर्प नृप, कहे राग रस बंठ ॥५॥ नू बिहुने काढवा, कीधो मांची संच ॥ तव पीउने नूपति तणो, मलया नणे प्रपंच ॥६॥ रस राच्यो आव्यो हां, मुज पावें कम जात ॥कीधी को मि कर्दथना, कामांधे दिन रात ॥ ७॥मुज रूपें मोह्यो निलज, न गणे कुलनी कार ॥ आकर्षी निरखी नि खर, हणशे तुज निरधार ॥७॥ कुमर कहे जो कूप थी, नीसरशुंकुशलेण ॥ शिरेंसवाई वालशें, यथा यो ग्य करणेण ॥ ए॥ ॥ ढाल आठमी ॥ थारे माथे पचरंगी पाग,
सोनारो बोगलो मारुजी ॥ ए देशी ॥ ॥प्रीतम कहे हरखी मांची निरखी आवती रूमी जी॥ श्यामा चढि बेसोयाणो अंदेसो श्यावती रू॥ कुशलें उतरीय विपत्ति उजरीये रंगमां रू०॥बेगेश्म कहे तो दोरी आहेतो मंचमां रू० ॥१॥प्रमदा सपति जी बेठी बीजी मांची रू०॥नूपति कहे जणने पहे ली धणने खांचीयें रू० ॥क्रम उचें नीचें सेवक खींचे
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org