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(२०) कहीने नयणें जल जरतो, पूजे तस विरतंत ॥ सापि कहे हियो फुःख पूरी, धुरथी व्यतिकर तंत ॥ प्र० ॥ १५ ॥ कहे पिठ ते संकट सायरमां, पेसी उःख अ नुखंगें ॥ नोग्य योग्य सुकुमाल शरीरें, कष्ट सह्यां किम अंगें ॥ प्र० ॥ २०॥तुज पासेंथी जे बलसारे, कम्पीने सुत लीधो ॥ अ किहां ते सा कहे शेठे, मू क्यो शहां घरे सीधो ॥ प्र० ॥१॥लहेश्यो किम नं दन शुद्ध सूधी, कुमर कहे थिर थापी ॥ थाशे सवि होशे जो शहांथी, बूटक बार कदापि ॥॥२॥ मुज विरहें वासर किम विरम्या, पूज्युंवली दीयतायें।
आप चरित्र सघलां ते लांखे, कुमर यथा श्छायें ॥ ॥ प्र० ॥ २३ ॥ सुख-संनाषण करतां बेहु,, रजनी त्यां निरवाहे ॥ ढाल सातमी चोथे खंमें, पत्नणी कांतें उ माहें ॥प्र० ॥२४॥
॥दोहा॥ ॥रयणी गई प्रगमो दूई, ऊग्यो रविअनुरूप ॥अनुपद जोतो राजिन, आवे जिहां डे कूप॥१॥ निरखी बेजण कूपमां, बोल्यो धरणी नाथ ॥जू सहजरूपें त्रिया, विलसे किण साथ ॥२॥ अहो रूप रति सुनग ता, यौवन गुण विज्ञान ॥ युगती जोमी जोमतां, नू
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