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(२१०) खे उतारी कांज्ञानरकोपमफुःखमा पनी, है है पाप प सा ॥ १० ॥ चाहे शील विखंमवा, कामंधल नृप धी
॥ मरण शरण जीवित थकी, अदत व्रतने श्छ। ॥११॥ काम कुचेष्टित मत्त नृप, ऊनो निरखी बा सावधिशंतन मन संवरी, बोली श्म ततकाल ॥१२॥ - ॥ ढाल पांचमी ॥ बेमो नांजी ॥ए देशी॥
॥डेमो नांजी, नांजी नांजी नांजी, मोनांजी।। नारी नरकनी •मी॥०॥आपे पुर्गति ऊमी॥ ॥ अनुचित करतां मीठमा बोलां, लोक कहे हा हाजी॥ के विरला हित मारग दाखे, तेहिज बाजी साजी ॥०॥१॥ परनारीथीसंपद निकसे, विकसे अपयश माला ॥ पुरुष पतंगा ऊंपण एतो, विषम अगनिनी जाला ॥३०॥२॥ जोतां अनुपम चित्र विणासे, लागो जिम मशिबिंदु।तिम परदारा संगति राहु,म लिन करे गुण इंदु॥०॥३॥धवल महाजस पट वि णसांमे, परनारी रस बांटो ॥ उत्तम कुल कीरतिपग वींधे, व्यसन महाविष कांटो ॥ ॥४॥ वेपत क र विषधरनां मुखमां, जिम जीवितनो सांसो॥ तिम सुख शील तणी शीश्राशा, सेवे पर त्रिय पासो॥०॥ ॥५॥ निज नारीथी नूख न जांगी, शुंडिखे मुज
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