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जूकि जूकि जोलां खाय ॥ ० ॥ १६ ॥ त्रीजे खं में फावी हो रस जावी वग आवी जली, ताती तेर मी ढाल ॥ कांति कहे सांजलजो हो चित्त कलजो कविता चातुरी, श्रोता घई उजमाल ॥ जू० १७ ॥ ॥ दोहा ॥
॥ ई अवसर अष्टांगवी, पुस्तक हस्त धरेय ॥ श्रव्यो एक निमित्ति, महबल पास धसेय ॥ १ ॥ स्वस्ति व चन मुख उच्चरें, जुज करी याघो सोय ॥ सचिवादि कहनें नमी, ये सत्कार सकोय || २ || नृप नि देशें आसने, बेगे नूपासन || पेखी पुरातन पारखुं, खोले शास्त्र तन्न ॥ ३ ॥ जक्ति युक्तिशुं मंत्रवी, पू बेक कर कोश ॥ उपकारी नैमित्तिया, जू एक
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म जोश ॥ ४ ॥ कलंकित ई ईणी परें, कुमर वधू सुगुणाल ॥ श्रम करथी तिम ऊतरी, जिम ढा लें परनाल ॥ ५ ॥ ता दुःखें महीपति हूर्ज, मरणो न्मुख सकुटुंब ॥ अशन वसन रस परिहस्यां न सहे प्राण विलंब ॥ ६ ॥ तेह जणी कहो म तणे, जा ये जाग्य विशाल || मलया मलशे जीवती, पजलो तेहनी जाल ॥ ७ ॥ जोशी नें साहमे मुखें, बेसी विनय प्रकाश ॥ जूपति बोल्योतत कर्णे, वारुवचन विलास ॥ ८॥
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