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( १७३) नहि किण गर, नूप नणे नाठी खरी होलाल ॥२३॥ होजी त्रीजे खंमें रसाल, ढाल कही ए बारमी होला ल ॥ होजी कांति विजय सुविलास, सुणजो श्रोता उजमी होलाल ॥२४॥
॥दोहा॥ कुमर हवे दिन केटले, जीती तेह किरात॥ता त चरण आवी नम्यो, प्रिया विरह अकुलात ॥ १॥ मलया नवने संचरे, त्यां नृप साही पाण॥वीतक च रित्र त्रिया तणा, कहे सकल सुविनाण ॥ २ ॥ कु मर निसासो नाखतो, बे कर घसतो आप ॥ गदगद कंठे कुंठ मन, करे एम उबाप ॥३॥
॥ढाल तेरमी ॥ नटीयाणीनी देशी॥ ॥ नूपतिजी कांई की, होःख दीधुं मलया बाल ने, हाहा नूलो कांहीं ॥ चित्तमां कां न विचास्यो हो नवि धास्यो अवसर आपशु, प्रकृति पलटी प्रांहीं ॥ ४० ॥१॥मुज आगम लगे नार। हो नाव धारी। कामिनी धारीने, कीधुं अनुचित कर्म ॥ नाला ज्युं चि त्त खटके हो अति जटके अग्निसमा थ, काम क स्यां विण मर्म ॥ ॥२॥ नि सा ते नारी हो बल नारी दाव रमी गई, जाणुं एहनां मूल ॥ जोव
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