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(१६ए) जलहलतो दंग ॥ ह ॥२०॥ बेयां पण निशिमां हे वाधे, शीश विना जस अंग ॥ पुरसो तेह कढावीने, नंमार धस्यो नृप चंग॥ ह॥१॥सकुटुंबो निज मंदिर थाव्यो, रंग जस्यो नर नेत ॥ दस दिन रंग व धामणां, वरताव्यां मंगल देत ॥ ह॥२॥ त्रीजा खंगनी आग्मी ढालें, नांग्या विरह वियोग॥ कांति विजय कहे पुण्यथी,लहियें मनवंबित नोग॥४०॥३॥
॥ दोहा ॥ ॥हवे नगर वन शोधतो, मलयकेतुमतिवंत ॥पुहवी गण नरिंदने, वेगें श्रावी मिलंत ॥ १॥ वात प्रका शी विगतथी, वर कन्यानी एण॥जगिनीपति जगिनी बिहुँ, मेलवियां नृपतेण॥२॥कुशल प्रश्न पूर्वक सहु, हरखित बेगं गण ॥ वरकन्यायें आपएं, दाख्युं चरि त्र वखाण ॥३॥ मलयकेतु शिर धूणतो, पामे मन अचरिङ ॥ नवली वा केहy, चित्त न चित्र जरिज ॥४॥गोष्टि महारस सागरें, करता हर्षण केलि ॥ जुख तृषा निखा प्रमुख, न गिणे रसने खेलि ॥५॥ मऊण जोजन वस्त्रथी, सत्कास्यो नृपनंद ॥ बांध्यो बेहेंनी नेहनो, रहे तिहां स्वछंद ॥ ६ ॥ केताश्क दि
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