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(१४५) हेली ढाल रे॥ मो०॥ कांतिविजय कहे पुण्ययी हो लाल, वाधे सुजश विशाल रे॥ मो० ॥ नू० ॥ २३ ॥
॥ दोहा॥
॥हवे कमर निसणे तदा, विनताना आदादया पणे नयणे चरे, करुणा जल निस्पंद ॥ १॥यावीश हुँ वहेलो प्रिये, चिंता मुज न करेश ॥इम कही नर रूपें त्रिया, तिहां विचच्यो नरेश॥२॥निरखत पियु नी वाटमी, शूने रंजाकुंजारयणि गमावे नारिते, दाधी पुःखने पुंज ॥३॥पीत वरण प्राची दुबे, पाल्यांक मल विबोध ॥ बंधनयरथी बक जिम, बूटा थलिकुल योध॥४॥गुंजा पुंज समान तनु, उदयो बालो सूर॥ आलें किरणनाले हणी, कस्या तिमिररिपु ॥५॥ ॥ ढाल बीजी॥ वृषनान जुवनें गई पूती ।। ए देशी
॥ मलया मन एम विचारे, जाउं हुं पुरमा करारें। माय बापने मलवा कामें,मुज नाह गयो दुशे धामें ॥१॥ चाही इंम चाली चुंपे,आवी वही पुरनी ॥ पेसे जव पुरने पुवारें, रोकी तव नगर तलारें ॥२॥ दिव्य वेश निहाली चमक्यो, कहे कुण तुं यायो धम क्यो॥ बोलाव्यो तिहां उत्तर नापे, दश दिशिमां लो चन थापे॥३॥मलिया केई नगर निवासी, निरखे तस
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